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उद॑ग्ने॒ तव॒ तद्घृ॒ताद॒र्ची रो॑चत॒ आहु॑तम् । निंसा॑नं जु॒ह्वो॒३॒॑ मुखे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud agne tava tad ghṛtād arcī rocata āhutam | niṁsānaṁ juhvo mukhe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत् । अ॒ग्ने॒ । तव॑ । तत् । घृ॒तात् । अ॒र्चिः । रो॒च॒ते॒ । आऽहु॑तम् । निंसा॑नम् । जु॒ह्वः॑ । मुखे॑ ॥ ८.४३.१०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:43» मन्त्र:10 | अष्टक:6» अध्याय:3» वर्ग:30» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:6» मन्त्र:10


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शिव शंकर शर्मा

पुनः अग्नि के गुण दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) अग्निदेव (ओषधीः) गोधूम आदि समस्त वनस्पतियों को (धासिम्) निज भक्ष बनाकर (बप्सत्) उनको खाते हुए भी (न+वायति) तृप्त नहीं होते। पुनः। किन्तु (तरुणीः) नवीन तरुण ओषधियों को (अपि) भी (यन्) प्राप्त कर उनमें फैलते हुए खाना चाहते हैं ॥७॥
भावार्थभाषाः - यह भी स्वाभाविक वर्णन है। आग्नेय शक्तियाँ ही पदार्थमात्र को बढ़ाती और घटाती हैं। इस कारण सदा पदार्थों में अनपचय और अपचय होता ही रहता है, हे मनुष्यों ! यह पदार्थगति देख ईश्वर के चिन्तन में लगो। एक दिन तुम्हारा भी अपचय आरम्भ होगा ॥७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अग्निहोत्र

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अग्ने) = यज्ञाग्ने ! (तव तद् अर्चिः) = तेरी वह ज्वाला (घृतात्) = घृत के द्वारा (आहुतम्) = समन्तात् आहुत हुई हुई (उद्रोचते) = ऊपर उठती हुई चमकती है। [२] यह ज्वाला (जुह्वा) = घृत के चम्मच के (मुखे) = अग्रभाग में (निंसानम्) = चुम्बन करती प्रतीत होती है। यज्ञाग्नि की ज्वाला इतनी ऊपर उठती है कि आहुति साधनभूत चम्मच को छूती प्रतीत होती है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ:-जिन घरों में अग्निहोत्र में अग्नि की ज्वालाएँ सब ऊपर उठती हैं, वहाँ इस अग्निहोत्र के द्वारा 'सौमनस्य' प्राप्त होकर शान्ति का निवास होता है।
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शिव शंकर शर्मा

पुनरग्निगुणाः प्रदर्श्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः - अग्निः। ओषधीः=सर्वान् गोधूमादिवनस्पतीन्। धासिम्=स्वभक्षं विधाय। ताश्च। बप्सद्=भक्षयन्नपि। न वायति=न तृप्यति। पुनः। तरुणीरपि ओषधीः यन् तत्र प्रसरन् भक्षयति ॥७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, that flame of yours fed and served with ghrta rises and shines, having received its beauteous energy from the ladle in yajna.