परमात्म-प्रेप्सा [प्राप्ति की कामना]
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (सोम) = शान्त प्रभो ! (अहम्) = मैं गत मन्त्र के अनुसार धन- सम्बन्धी कामनाओं से तो ऊपर उठता ही हूँ, (उत) और (ते व्रतानि) = आपके व्रतों को, आपकी प्राप्ति के साधनभूत व्रतों को (पाक्या) = परिपक्व बुद्धि से (प्रमिनामि) = [प्रकर्षेण करोमीत्यर्थ: सा० ] = खूब ही सम्पादित करता हूँ मैं आपका ज्ञान भक्त बनता हूँ । बुद्धि की परिपक्वता से सृष्टि के एक-एक पदार्थ में आपकी महिमा को देखता हूँ, और प्रत्येक पदार्थ को आपका स्तवन करता हुआ अनुभव करता हूँ। [२] (अधा) = अब तो (इव पिता सुनवे) = जैसे पिता पुत्र के लिये उसी प्रकार (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द में, (नः) = हमें (अभि चित्) = दोनों ओर ही, अर्थात् अन्दर और बाहर (वधात्) = वध से, अर्थात् आन्तर व बाह्य शत्रुओं के विनाश से (मृडा) = सुखी कीजिए। आपकी शक्ति से ही शत्रुओं का नाश होता है, विशेषतः इन कामादि अन्तः शत्रुओं का नाश मेरी ही शक्ति से नहीं होनेवाला । इन्हें तो आप ही मेरे लिये विजय करेंगे। जिससे (विवक्षसे) = मैं विशिष्ट उन्नति के लिये समर्थ हो सकूँ ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु प्राप्ति के लिए साधनभूत व्रतों का आचरण करता हुआ मैं प्रभु को प्राप्त करूँ, प्रभु मेरे शत्रुओं का संहार कर मेरी उन्नति के साधक बनें।