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दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। सर॑स्वत्यै वा॒चो य॒न्तुर्य॒न्त्रिये॑ दधामि॒ बृह॒स्पते॑ष्ट्वा॒ साम्रा॑ज्येना॒भिषि॑ञ्चाम्यसौ ॥३०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्याम्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। सर॑स्वत्यै। वा॒चः। य॒न्तुः। य॒न्त्रिये॑। द॒धा॒मि॒। बृह॒स्पतेः॑। त्वा॒। साम्रा॑ज्ये॒नेति॒ साम्ऽरा॑ज्येन। अ॒भि। सि॒ञ्चा॒मि॒। अ॒सौ॒ ॥३०॥

यजुर्वेद » अध्याय:9» मन्त्र:30


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कहाँ कैसे को राजा करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सब अच्छे गुण कर्म्म स्वभावयुक्त विद्वन् ! (असौ) यह मैं (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्न करनेवाले ईश्वर (देवस्य) प्रकाशमान जगदीश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये संसार में (सरस्वत्यै) अच्छे प्रकार शिल्पविद्यायुक्त (वाचः) वेदवाणी के मध्य (अश्विनोः) सूर्य्य-चन्द्रमा के बल और आकर्षण के समान (बाहुभ्याम्) भुजाओं से (पूष्णः) वायु के समान धारण-पोषण गुणयुक्त (हस्ताभ्याम्) हाथों से (त्वा) तुम को (दधामि) धारण करता हूँ और (बृहस्पतेः) बड़े विद्वान् के (यन्त्रिये) कारीगरी विद्या से सिद्ध किये राज्य में (साम्राज्येन) चक्रवर्ती राजा के गुण से सहित (त्वा) तुझ को (अभि) सब ओर से (सिञ्चामि) सुगन्धित रसों से मार्जन करता हूँ ॥३०॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि ईश्वर में प्रेमी, बल, पराक्रम, पुष्टियुक्त, चतुर, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, प्रजापालन में समर्थ विद्वान् को अच्छे प्रकार परीक्षा कर सभा का स्वामी करने के लिये अभिषेक करके राजधर्म की उन्नति अच्छे प्रकार नित्य किया करें ॥३०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः क्व कीदृशं राजानं कुर्य्युरित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(देवस्य) प्रकाशमानस्य (त्वा) त्वाम् (सवितुः) सकलजगत्प्रसवितुरीश्वरस्य (प्रसवे) जगदुत्पादे (अश्विनोः) सूर्याचन्द्रमसोर्बलाकर्षणाभ्यामिव (बाहुभ्याम्) भुजाभ्याम् (पूष्णः) पोषकस्य वायोर्धारणपोषणाभ्यामिव (हस्ताभ्याम्) कराभ्याम् (सरस्वत्यै) विज्ञानसुशिक्षायुक्तायाः, अत्र षष्ठ्यर्थे चतुर्थी (वाचः) वेदवाण्याः (यन्तुः) नियन्तुः (यन्त्रिये) शिल्पविद्यासिद्धानां यन्त्राणामर्हे योग्ये निष्पादने (दधामि) धरामि (बृहस्पतेः) परमविदुषः (त्वा) (साम्राज्येन) सम्राजो भावेन (अभि) आभिमुख्ये (सिञ्चामि) सुगन्धेन रसेन मार्ज्मि (असौ) अदो नामा। अयं मन्त्रः (शत०५.२.२.१२-१५) व्याख्यातः ॥३०॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अखिलशुभगुणकर्मस्वभावयुक्त विद्वन् ! असावहं सवितुर्देवस्य जगदीश्वरस्य प्रसवे सरस्वत्यै वाचोऽश्विनोर्बाहूभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां त्वा दधामि, यन्तुर्बृहस्पतेर्यन्त्रिये साम्राज्येन त्वाभिषिञ्चामि ॥३०॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरीश्वरप्रियं बलवीर्यपुष्टियुक्तं प्रगल्भं सत्यवादिनं जितेन्द्रियं धार्मिकं प्रजापालनक्षमं विद्वांसं सुपरीक्ष्य सभाया अधिष्ठातृत्वेनाभिषिच्य राजधर्म उन्नेयः ॥३०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी ईश्वरभक्त, बलवान, पराक्रमी, निरोगी, चतुर, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, प्रजापालन करण्यास समर्थ व विद्वान असलेल्या अशा माणसाची परीक्षा करून त्याला राजा म्हणून निवडावे व सतत राजधर्म वृद्धिंगत करावा.