अ॒स्मे वो॑ऽअस्त्विन्द्रि॒यम॒स्मे नृ॒म्णमु॒त क्रतु॑र॒स्मे वर्चा॑सि सन्तु वः। नमो॑ मा॒त्रे पृ॑थि॒व्यै नमो॑ मा॒त्रे पृ॑थि॒व्याऽइ॒यं ते॒ राड्य॒न्तासि॒ यम॑नो ध्रु॒वो᳖ऽसि ध॒रुणः॑। कृ॒ष्यै त्वा॒ क्षेमाय॑ त्वा र॒य्यै त्वा॒ पोषा॑य त्वा ॥२२॥
अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। वः। अ॒स्तु॒। इ॒न्द्रि॒यम्। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। नृ॒म्णम्। उ॒त। क्रतुः॑। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। वर्चा॑सि। स॒न्तु॒। वः॒। नमः॑। मा॒त्रे। पृ॒थि॒व्यै। नमः॑। मा॒त्रे। पृ॒थि॒व्यै। इ॒यम्। ते॒। राट्। य॒न्ता। अ॒सि॒। यम॑नः। ध्रु॒वः। अ॒सि॒। ध॒रुणः॑। कृ॒ष्यै। त्वा॒। क्षेमा॑य। त्वा॒। र॒य्यै। त्वा॒। पोषा॑य। त्वा॒ ॥२२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल मनुष्यों को संसार में कैसे वर्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
ईश्वराज्ञातो मनुष्यैरिह कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते ॥
(अस्मे) अस्माकमस्मभ्यं वा (वः) युष्माकं युष्मभ्यं वा (अस्तु) भवतु (इन्द्रियम्) मन आदीनि (अस्मे) (नृम्णम्) धनम् (उत) अपि (क्रतुः) प्रज्ञा कर्म वा (अस्मे) (वर्चांसि) प्रकाशमानाध्ययनानि। वर्च इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (सन्तु) (वः) युष्माकं युष्मभ्यं वा (नमः) अन्नादिकम् (मात्रे) मान्यनिमित्तायै (पृथिव्यै) विस्तृतायै भूमये (नमः) जलादिकम् (मात्रे) (पृथिव्यै) (इयम्) (ते) तव (राट्) राजमाना (यन्ता) नियन्ता (असि) (यमनः) उपयन्ता (ध्रुवः) निश्चलः (असि) (धरुणः) धर्त्ता (कृष्यै) कृषन्ति विलिखन्ति भूमिं यया तस्यै (त्वा) त्वाम् (क्षेमाय) रक्षणाय (त्वा) (रय्यै) श्रियै (त्वा) (पोषाय) पुष्टये (त्वा) ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.२.१.१५-२५) व्याख्यातः ॥२२॥