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आ मा॒ वाज॑स्य प्रस॒वो ज॑गम्या॒देमे द्यावा॑पृथि॒वी वि॒श्वरू॑पे। आ मा॑ गन्तां पि॒तरा॑ मा॒तरा॒ चा मा॒ सोमो॑ऽअमृत॒त्त्वेन॑ गम्यात्। वाजि॑नो वाजजितो॒ वाज॑ꣳ ससृ॒वासो॒ बृह॒स्पते॑र्भा॒गमव॑जिघ्रत निमृजा॒नाः ॥१९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। मा॒। वाज॑स्य। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः। ज॒ग॒म्या॒त्। आ। इ॒मेऽइती॒मे। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। वि॒श्वरू॑पे॒ऽइति॑ वि॒श्वऽरू॑पे। आ। मा॒। ग॒न्ता॒म्। पि॒तरा॑मा॒तरा॑। च॒। आ। मा॒। सोमः॑। अ॒मृ॒त॒त्वेनेत्य॑मृ॒तऽत्वेन॑। ग॒म्या॒त्। वाजि॑नः। वा॒ज॒जित॒ इति॑ वाजऽजितः। वाज॑म्। स॒सृ॒वास॒ इति॑ ससृ॒वासः॑। बृह॒स्पतेः॑। भा॒गम्। अव॑। जि॒घ्र॒त॒। नि॒मृ॒जा॒ना इति॑ निऽमृजा॒नाः ॥१९॥

यजुर्वेद » अध्याय:9» मन्त्र:19


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को धर्माचरण से किस-किस पदार्थ की इच्छा करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पूर्वोक्त विद्वान् लोगो ! जिन आप लोगों के सहाय से (वाजस्य) वेदादि शास्त्रों के अर्थों के बोधों का (प्रसवः) सुन्दर ऐश्वर्य्य (मा) मुझ को (जगम्यात्) शीघ्र प्राप्त होवे (इमे) ये (विश्वरूपे) सब रूप विषयों के सम्बन्धी (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि का राज्य (च) और (अमृतत्वेन) सब रोगों की निवृत्तिकारक गुण के साथ (सोमः) सोमवल्ली आदि ओषधि विज्ञान मुझको प्राप्त हो और (पितरामातरा) विद्यायुक्त पिता-माता मुझको (आगन्ताम्) प्राप्त होवें, वे आप (वाजिनः) प्रशंसित बलवान् (वाजजितः) सङ्ग्राम के जीतनेवाले (वाजम्) सङ्ग्राम को प्राप्त होते हुए (निमृजानाः) निरन्तर शुद्ध हुए तुम लोग (बृहस्पतेः) बड़ी सेना के स्वामी के (भागम्) सेवने योग्य भाग को (अवजिघ्रत) निरन्तर प्राप्त होओ ॥१९॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विद्वान् के साथ विद्या और उत्तम शिक्षा को प्राप्त हो के धर्म का आचरण करते हैं, उन को इस लोक और परलोक में परमैश्वर्य का साधक राज्य, विद्वान् माता-पिता और नीरोगता प्राप्त होती है। जो पुरुष विद्वानों का सेवन करते हैं, वे शरीर और आत्मा की शुद्धि को प्राप्त हुए सब सुखों को भोगते हैं। इससे विरुद्ध चलनेहारे नहीं ॥१९॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैर्धर्माचरणेन किं किमेष्टव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(आ) (मा) माम् (वाजस्य) वेदादिशास्त्रार्थप्रसूतज्ञानबोधस्य (प्रसवः) प्रकृष्टैश्वर्य्यसमूहः (जगम्यात्) भृशं प्राप्नुयात् (आ) (इमे) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी राज्यार्थे (विश्वरूपम्) विश्वानि सर्वाणि रूपाणि ययोस्ते (आ) (मा) माम् (गन्ताम्) प्राप्नुतः, अत्र विकरणलुक् (पितरामातरा) पिता च माता च ते, अत्र पितरामातरा च च्छन्दसि। (अष्टा०६.३.३३) इति पूर्वपदस्याऽनङ्, उत्तरपदस्याऽकारादेशश्च निपात्यते (च) सुसहायः (आ) (मा) माम् (सोमः) सोमवल्ल्याद्योषधिगणः (अमृतत्वेन) सर्वरोगनिवारकत्वेन सह (गम्यात्) प्राप्नुयात् (वाजिनः) प्रशस्तबलिनः (वाजजितः) विजितसङ्ग्रामः (वाजम्) सङ्ग्रामम् (ससृवांसः) प्राप्तवन्तः (बृहस्पतेः) बृहत्याः सेनायाः स्वामिनः (भागम्) भजनीयम् (अव) (जिघ्रत) (निमृजानः) नितरां शुन्धन्तः। अयं मन्त्रः (शत०५.१.५.२६-२७) व्याख्यातः ॥१९॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पूर्वोक्ता विद्वांसः ! येषां भवतां सहायेन वाजस्य प्रसवो मा जगम्यात् समन्तात् प्राप्नुयादिमे विश्वरूपे द्यावापृथिवी चामृतत्वेन सोमो गम्यात्। पितरामातरा चागन्ताम् ॥ ते वाजिनो वाजजितो वाजं ससृवांसो निमृजानाः सन्तो यूयं बृहपस्तेर्भागमवजिघ्रत ॥१९॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या विद्वत्सङ्गेन विद्यासुशिक्षे प्राप्य धर्ममाचरन्ति, तानिहामुत्र परमैश्वर्य्यसाधकं राज्यम्, विद्वांसौ मातापितरौ, रोगराहित्यं च प्राप्नोति। ये विदुषां सेवनं कुर्वन्ति, ते शरीरात्मबलं प्राप्ताः सन्तः सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति, नातो विरुद्धाचरणा एतत्सर्वमाप्तुं शक्नुवन्ति ॥१९॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे विद्वानांच्या संगतीने विद्या व उत्तम शिक्षण प्राप्त करतात व त्यानुसार धार्मिक वर्तन करतात ते इहलोकी व परलोकी महान ऐश्वर्याचे साधक बनतात व त्यांना राज्य, विद्वान माता-पिता आणि आरोग्य प्राप्त होते. जे पुरुष विद्वानांच्या संगतीत राहतात त्यांच्या शरीर व आत्म्याची शुद्धी होते व ते सुखी होतात. याविरुद्ध वागणारे सुखी होत नाहीत.