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ए॒षा वः॒ सा स॒त्या सं॒वाग॑भू॒द् यया॒ बृह॒स्पतिं॒ वाज॒मजी॑जप॒ताजी॑जपत॒ बृह॒स्पतिं॒ वाजं॒ वन॑स्पतयो॒ विमु॑च्यध्यम्। ए॒षाः वः॒ सा स॒त्या सं॒वाग॑भू॒द् ययेन्द्रं॒ वाज॒मजी॑जप॒ताजी॑जप॒तेन्द्रं॒ वाजं॒ वन॑स्पतयो॒ विमु॑च्यध्वम् ॥१२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒षा। वः॒। सा। स॒त्या। सं॒वागिति॑ स॒म्ऽवाक्। अ॒भू॒त्। यया॑। बृह॒स्प॑तिम्। वाज॑म्। अजी॑जपत। अजी॑जपत। बृह॒स्पति॑म्। वाज॑म्। वन॑स्पतयः। वि। मु॒च्य॒ध्व॒म्। ए॒षा। वः॒। सा। स॒त्या। संवागिति॑ स॒म्ऽवाक्। अ॒भू॒त्। यया॑। इन्द्र॑म्। वाज॑म्। अजी॑जपत। अजी॑जपत। इन्द्र॑म्। वाज॑म्। वन॑स्पतयः। वि। मु॒च्य॒ध्व॒म् ॥१२॥

यजुर्वेद » अध्याय:9» मन्त्र:12


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को अति उचित है कि सब समय में सब प्रकार से सत्य ही बोलें, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वनस्पतयः) किरणों के समान न्याय के पालनेहारे राजपुरुषो ! तुम लोग (यया) जिस से (बृहस्पतिम्) वेदशास्त्र के पालनेहारे विद्वान् को (वाजम्) वेदशास्त्र के बोध को (अजीजपत) बढ़ाओ (बृहस्पतिम्) बड़े राज्य के रक्षक राजपुरुष के (वाजम्) सङ्ग्राम को (अजीजपत) जिताओ (सा) वह (एषा) पूर्व कही वा आगे जिस को कहेंगे (वः) तुम लोगों की (संवाक्) राजनीति में स्थित अच्छी वाणी (सत्या) सत्यस्वरूप (अभूत्) होवे। हे (वनस्पतयः) सूर्य की किरणों के समान न्याय के प्रकाश से प्रजा की रक्षा करनेहारे राजपुरुषो ! तुम लोग (यया) जिससे (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य प्राप्त करानेहारे सेनापति को (वाजम्) युद्ध को (अजीजपत) जिताओ (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्ययुक्त पुरुष को (वाजम्) अत्युत्तम लक्ष्मी को प्राप्त करनेहारे उद्योग को (अजजीपत) अच्छे प्रकार प्राप्त करावें, (सा) वह (एषा) आगे-पीछे जिसका प्रतिपादन किया है (वः) तुम लोगों की (संवाक्) विनय और पुरुषार्थ का अच्छे प्रकार प्रकाश करनेवाली वाणी (सत्या) सदा सत्यभाषणादि लक्षणों से युक्त (अभूत्) होवे ॥१२॥
भावार्थभाषाः - राजा, उस के नौकर और प्रजापुरुषों को उचित है कि अपनी प्रतिज्ञा और वाणी को असत्य होने कभी न दें, जितना कहें उतना ठीक-ठीक करें। जिसकी वाणी सब काल में सत्य होती है, वही पुरुष राज्याधिकार के योग्य होता है, जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक उन राजा और प्रजा के पुरुषों का विश्वास और वे सुखों को नहीं बढ़ा सकते ॥१२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः सर्वदा सर्वथा सत्यं वक्तव्यं श्रोतव्यं चेत्याह ॥

अन्वय:

(एषा) उक्ता वक्ष्यमाणा च (वः) युष्माकम् (सा) (सत्या) यथार्थोक्ता (संवाक्) राजनीतिनिष्ठा सम्यग्वाणी (अभूत्) भवतु (यया) (बृहस्पतिम्) वेदशास्त्रपालकम् (वाजम्) वेदशास्त्रबोधम् (अजीजपत) उत्कर्षयत (अजीजपत) (बृहस्पतिम्) बृहतो राज्यस्य पालकम् (वाजम्) सङ्ग्रामम् (वनस्पतयः) वनस्य किरणसमूहस्येव न्यायस्य पालकाः। वनमिति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (वि) (मुच्यध्वम्) मुक्ता भवत, विकरणव्यत्ययेन श्यन् (एषा) पूर्वापरप्रतिपादिता (वः) युष्माकम् (सा) (सत्या) सत्यभाषणयुक्ता (संवाक्) विनयपुरुषार्थयोः सम्यक् प्रकाशिनी वाणी (अभूत्) भवेत् (यया) (अजीजपत) जापयत (अजीजपत) सम्यक् प्रापयत (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवते पुरुषाय (वाजम्) युद्धम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्तमुत्तमश्रीप्रापकमुद्योगम् (वाजम्) वेगयुक्तम् (वनस्पतयः) वनानां जङ्गलानां पालकाः (वि) (मुच्यध्वम्)। अयं मन्त्रः (शत०५.१.५.११-१२) व्याख्यातः ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वनस्पतयः ! यूयं यया बृहस्पतिं वाजमजीजपत बृहस्पतिमजीजपत सैषा वः संवाक् सत्याऽभूत्। हे वनस्पतयः ! यूयं ययेन्द्रं वाजमजीजपतेन्द्रमजीजपत सैषा वः संवाक् सत्याऽभूत् ॥१२॥
भावार्थभाषाः - नैव कदाचिदपि राजा राजाऽमात्यभृत्याः प्रजाजनाश्च स्वकीयां प्रतिज्ञां वाचं चासत्यां कुर्य्युः। यावतीं ब्रूयुस्तावतीं तथ्यामेव कुर्य्युः। यस्य वाणी सर्वदा सत्याऽस्ति, स एव सम्राड् भवितुमर्हति, यावदेवं न भवति तावद् राजप्रजाजना विश्वसिताः सुखस्योत्कर्षकाश्च भवितुं नार्हन्ति ॥१२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा, त्याचे सेवक व प्रजा यांनी आपली प्रतिज्ञा व आपली वाणी असत्य ठरेल असे वागू नये. जशी वाणी तशीच करणी असावी. ज्याची वाणी सर्व काळी सत्य ठरते त्याच व्यक्तीला राज्य करण्याचा अधिकार असतो. जोपर्यंत असे होत नाही तोपर्यंत राजा व प्रजा यांचा परस्परांवर विश्वास नसतो व सुखाची वृद्धीही होत नाही.