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उ॒शिक् त्वं दे॑व सोमा॒ग्नेः प्रि॒यं पाथोऽपी॑हि व॒शी त्वं दे॑व सो॒मेन्द्र॑स्य प्रि॒यं पाथोऽपी॑ह्य॒स्मत्स॑खा॒ त्वं दे॑व सोम॒ विश्वे॑षां दे॒वानां॑ प्रि॒यं पाथोऽपी॑हि ॥५०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒शिक्। त्वम्। दे॒व॒। सो॒म॒। अ॒ग्नेः। प्रि॒यम्। पाथः॑। अपि॑। इ॒हि॒। व॒शी। त्वम्। दे॒व। सो॒म॒। इन्द्र॑स्य। प्रि॒यम्। पाथः॑। अपि॑। इ॒हि॒। अ॒स्मत्स॒खेत्य॒स्मत्ऽसखा॑। त्वम्। दे॒व॒। सो॒म॒। विश्वे॑षाम्। दे॒वाना॑म्। प्रि॒यम्। पाथः॑। अपि॑। इ॒हि॒ ॥५०॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:50


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रकारान्तर से राजविषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) दिव्यगुणसम्पन्न (सोम) समस्त ऐश्वर्य्ययुक्त राजन् ! आप (उशिक्) अति मनोहर होके (अग्नेः) उत्तम विद्वान् के (प्रियम्) प्रेम उत्पन्न करानेवाले (पाथः) रक्षायोग्य व्यवहार को (अपि) निश्चय से (इहि) प्राप्त करो और जानो। हे (देव) दानशील (सोम) हर एक प्रकार से ऐश्वर्य्य की उन्नति करानेवाले ! आप (वशी) जितेन्द्रिय होकर (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्यवाले धार्म्मिक जन के (प्रियम्) प्रेम उत्पन्न करानेवाले (पाथः) जानने योग्य कर्म को (अपि) निश्चय से (इहि) जानो। हे (देव) समस्त विद्याओं में प्रकाशमान (सोम) ऐश्वर्य्ययुक्त ! आप (अस्मत्सखा) हम लोग जिनके मित्र हैं, ऐसे आप होकर (विश्वेषाम्) समस्त (देवानाम्) विद्वानों के प्रेम उत्पन्न करानेहारे (पाथः) विज्ञान के आचरण को (अपि) निश्चय से (इहि) प्राप्त हो तथा जानो ॥५०॥
भावार्थभाषाः - राजा, राजपुरुष, सभासद् तथा अन्य सब सज्जनों को उचित है कि पुरुषार्थ अच्छे-अच्छे नियम और मित्रभाव से धार्म्मिक वेद के पारगन्ता विद्वानों के मार्ग को चलें, क्योंकि उनके तुल्य आचरण किये विना कोई विद्या, धर्म्म, सब से एक प्रीतिभाव और ऐश्वर्य्य को नहीं पा सकता है ॥५०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः प्रकारान्तरेण राजविषयमाह ॥

अन्वय:

(उशिक्) कामयमानः (त्वम्) (देव) दिव्यगुणसम्पन्न (सोम) सकलैश्वर्य्याढ्य (अग्नेः) सद्विदुषः (प्रियम्) प्रीतिजनकम् (पाथः) रक्षणीयमाचरणम्, पाथ इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.३) (अपि) निश्चयार्थे (इहि) प्राप्नुहि जानीहि वा (वशी) जितेन्द्रियः (त्वम्) (देव) दातः (सोम) ऐश्वर्य्योन्नतौ प्रेरक (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्तस्य धार्म्मिकस्य राज्ञः (प्रियम्) सुखैस्तर्प्पकम् (पाथः) ज्ञातव्यं कर्म्म (अपि) (इहि) (अस्मत्सखा) वयं सखायो यस्य सः (त्वम्) (देव) विद्यासु द्योतमान (सोम) विद्यैश्वर्य्यसहित (विश्वेषाम्) सर्वेषाम् (देवानाम्) धार्म्मिकाणामाप्तानां विदुषाम् (प्रियम्) कमनीयम् (पाथः) विज्ञानाचरणम् (अपि) (इहि)। अयं मन्त्रः (शत०११.५.९.१२) व्याख्यातः ॥५०॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे देव सोम राजन् ! त्वमुशिग्भवन्नग्नेः प्रियम्पाथोऽपीहि। हे देव सोम ! त्वं वशी भूत्वेन्द्रस्य प्रियम्पाथोऽपीहि। हे देव सोम ! त्वमस्मत्सखा विश्वेषां देवानां प्रियं पाथोऽपीहि ॥५०॥
भावार्थभाषाः - राज्ञो राजपुरुषाणां सभ्यानां चोचितमस्ति पुरुषार्थेन संयमेन मित्रतया धार्म्मिकाणां वेदपारगानां मार्गे गच्छेयुर्नहि सत्पुरुषसङ्गानुकरणाभ्यां विना कश्चिद्विद्यां धर्म्मं सार्वजनिकप्रियतामैश्वर्य्यं च प्राप्तुं शक्नोति ॥५०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा, राजपुरुष, सभासद व इतर सर्व लोकांनी पुरुषार्थ करून चांगल्या नियमांचे पालन करावे. मैत्रीच्या भावनेने धार्मिक, वैदिक विद्वानांच्या मार्गाने चालावे. कारण त्यांच्यासारखे वागल्याशिवाय कोणीही विद्या, धर्म, सर्वांवर सारखी प्रीती, ऐश्वर्य प्राप्त करू शकत नाही.