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उदु॒ त्यं जा॒तवे॑दसं दे॒वं व॑हन्ति के॒तवः॑। दृ॒शे विश्वा॑य॒ सूर्य॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ सूर्या॑य त्वा भ्रा॒जायै॒ष ते॒ योनिः॒ सूर्या॑य त्वा भ्रा॒जाय॑ ॥४१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। त्यम्। जा॒तवे॑दस॒मिति॑ जा॒तऽवे॑दसम्। दे॒वम्। व॒ह॒न्ति॒। के॒तवः॑। दृ॒शे। विश्वा॑य। सूर्य्य॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। सूर्य्या॑य। त्वा॒। भ्रा॒जाय॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। सूर्य्या॑य। त्वा॒। भ्रा॒जाय॑ ॥४१॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:41


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वरपक्ष में गृहस्थ के कर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (जातवेदसम्) जो उत्पन्न हुए पदार्थों को जानता वा प्राप्त कराता वा वेद और संसार के पदार्थ जिससे उत्पन्न हुए हैं (देवम्) शुद्धस्वरूप जगदीश्वर जिसको (विश्वाय) संसार के उपकार के लिये (दृशे) ज्ञानचक्षु से देखने को (केतवः) किरणों के तुल्य सर्व अंशों में प्रकाशमान विद्वान् (उत्) (वहन्ति) अपने उत्कर्ष से वादानुवाद कर व्याख्यान करते हैं (उ) तर्क-वितर्क के साथ (त्यम्) उस जगदीश्वर को हम लोग प्राप्त हों। हे जगदीश्वर ! जो आप हम लोगों ने (भ्राजाय) प्रकाशमान अर्थात् अत्यन्त उत्साह और पुरुषार्थयुक्त (सूर्य्याय) प्राण के लिये (उपयामगृहीतः) यम-नियमादि योगाभ्यास उपासना आदि साधनों से स्वीकार किये हुए (असि) हैं, उन (त्वा) आपको उक्त कामना के लिये समस्त जन स्वीकार करें और हे ईश्वर ! जिन (ते) आपका (एषः) यह कार्य्य और कारण की व्याप्ति से एक अनुमान होना (योनिः) अनुपम प्रमाण है, उन (त्वा) आपको (भ्राजाय) प्रकाशमान (सूर्य्याय) ज्ञानरूपी सूर्य्य के पाने के लिये एक कारण जानते हैं ॥४१॥
भावार्थभाषाः - जैसे वेद के वेत्ता विद्वान् लोग वेदानुकूल मार्ग से परमेश्वर को जानकर उत्तम ज्ञान से उसका सेवन करते हैं, वैसे ही वह जगदीश्वर सब को उपासनीय अर्थात् सेवन करने के योग्य है। वैसे ज्ञान के विना ईश्वर की उपासना कभी नहीं हो सकती, क्योंकि विज्ञान ही उसकी अवधि है ॥४१॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरपक्षे गृहस्थकर्म्माह ॥

अन्वय:

(उत्) (उ) वितर्के (त्यम्) अमुम् (जातवेदसम्) यो जातान् वेत्ति विन्दते वा, जाता वेदसो वेदाः पदार्था वा यस्मात् तम् (देवम्) शुद्धस्वरूपम् (वहन्ति) प्रापयन्ति (केतवः) किरणा इव प्रकाशमाना विद्वांसः (दृशे) द्रष्टुम् (विश्वाय) सर्वजगदुपकाराय (सूर्यम्) चराचरात्मानमीश्वरम् (उपयामगृहीतः) उपगतैर्यामैर्यमैः स्वीकृतः (असि) (सूर्य्याय) प्राणाय सवित्रे वा (त्वा) त्वाम् (भ्राजाय) प्रकाशकाय (एषः) कार्यकारणसङ्गत्या यदनुमीयते (ते) तव (योनिः) असमं प्रमाणम् (सूर्य्याय) ज्ञानसूर्यस्य प्राप्तये (त्वा) त्वाम् (भ्राजाय)। अयं मन्त्रः (शत०४.३.४.९) व्याख्यातः ॥४१॥

पदार्थान्वयभाषाः - यं जातवेदसं देवं सूर्यं जगदीश्वरं विश्वाय दृशे केतवो विद्वांस उद्वहन्त्यु त्यं जगदीश्वरं वयं प्राप्नुयाम। हे जगदीश्वर ! यस्त्वमस्माभिर्भ्राजाय सूर्यायोपयामगृहीतोऽसि, तं त्वा त्वां सर्वे गृह्णन्तु, यस्य ते तवैष योनिरास्ति, तं त्वां भ्राजाय सूर्याय कारणं विजानीमः ॥४१॥
भावार्थभाषाः - यथा वेदविदो विद्वांसो वेदाऽनुकूलमार्गेण परमेश्वरं विज्ञाय श्रेष्ठविज्ञानेन तदुपासनं कुर्वन्ति, तथैव स ईश्वरः सर्वैरुपासनीयः। न तादृशेन ज्ञानेन विनेश्वरोपासना भवितुं शक्या, कुतो विज्ञानमेव परमेश्वरोपासनावधिरिति ॥४१॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - वैदिक विद्वान वेदानुकूल मार्गाने परमेश्वराला जाणून उत्तम ज्ञान प्राप्त करून त्याची भक्ती करतात. अशा जगदीश्वराची सर्वांनी उपासना करावी. वास्तविक ज्ञानाखेरीज परमेश्वराची उपासना कधीच होऊ शकत नाही. विज्ञानाची पराकाष्ठा करूनच त्याला जाणता येते.