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य॒ज्ञो दे॒वानां॒ प्रत्ये॑ति सु॒म्नमादि॑त्यासो॒ भव॑ता मृड॒यन्तः॑। आ वो॒ऽर्वाची॑ सुम॒तिर्व॑वृत्याद॒ꣳहोश्चि॒द्या व॑रिवो॒वित्त॒रास॑दादि॒त्येभ्य॑स्त्वा ॥४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य॒ज्ञः। दे॒वाना॑म्। प्रति॑। ए॒ति॒। सु॒म्नम्। आदि॑त्यासः। भव॑त। मृ॒ड॒यन्तः॑। आ। वः॒। अ॒र्वाची॑। सु॒म॒तिरिति॑ सुऽम॒तिः। व॒वृ॒त्या॒त्। अ॒होः। चि॒त्। या। व॒रि॒वो॒वित्त॒रेति॑ वरिवो॒वित्ऽत॑रा। अस॑त्। आ॒दि॒त्येभ्यः। त्वा॒ ॥४॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:4


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी गृहाश्रम का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (आदित्यासः) सूर्य्यलोकों के समान विद्या आदि शुभ गुणों से प्रकाशमान ! आप जो (देवानाम्) विद्वान् (वः) आप लोगों का यह (यज्ञः) स्त्रीपुरुषों के वर्त्तने योग्य गृहाश्रम व्यवहार (सुम्नम्) सुख को (प्रति) (एति) निश्चय करके प्राप्त करता है और (या) जो (अंहोः) गृहाश्रम के सुख को सिद्ध करनेवाली (अर्वाची) अच्छी शिक्षा और विद्याभ्यास के पीछे विज्ञानप्राप्ति का हेतु (वरिवोवित्तरा) सत्यव्यवहार का निरन्तर विज्ञान देनेवाली आप लोगों की (सुमतिः) श्रेष्ठ बुद्धि, श्रेष्ठ मार्ग में (आ) निरन्तर (ववृत्यात्) प्रवृत्त होवे, जो (आदित्येभ्यः) आप्त विद्वानों से उत्तम विद्या और शिक्षा जो (त्वा) तुझ को (असत्) प्राप्त हो, (चित्) उस बुद्धि से ही युक्त हम दोनों स्त्री-पुरुष को (मृडयन्तः) सदा सुख देते (भवत) रहिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - विवाह करके स्त्रीपुरुषों को चाहिये कि जिस-जिस काम से विद्या, अच्छी शिक्षा, बुद्धि, धन, सुहृद्भाव और परोपकार बढ़े, उस कर्म का सेवन अवश्य किया करें ॥४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्गृहाश्रमविषयमाह ॥

अन्वय:

(यज्ञः) स्त्रीपुरुषाभ्यां सङ्गमनीयः (देवानाम्) विदुषाम् (प्रति) प्रतीतम् (एति) प्रापयति (सुम्नम्) सुखम्। सुम्नमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) (आदित्यासः) आदित्यवद्विद्यादिशुभगुणैः प्रकाशमानाः (भवत) (मृडयन्तः) सर्वान् सुखयन्तः (आ) (वः) युष्माकम् (अर्वाची) सुशिक्षाविद्याभ्यासात् पश्चाद् विज्ञानमञ्चति प्राप्नोत्यनया सा (सुमतिः) शोभना चाऽसौ मतिः (ववृत्यात्) वर्त्तताम्। अत्र बहुलं छन्दसि। (अष्टा०२.४.७६) इति शपः श्लुर्व्यत्ययेन परस्मैपदञ्च। (अंहोः) सुखप्रापकस्य गृहाश्रमस्याऽनुष्ठानस्य (चित्) अपि (या) (वरिवोवित्तरा) वरिवः सत्यं व्यवहारं वेत्यनया साऽतिशयिता (असत्) भवेत्, लेट्प्रयोगोऽयम्। (आदित्येभ्यः) सर्वेभ्यो मासेभ्यः (त्वा) त्वाम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.३.५.१५) व्याख्यातः ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे आदित्यासः ! यूयं देवानां वो युष्माकं यो गृहाश्रमाख्यो यज्ञः सुम्नं प्रत्येति, यांहोऽर्वाची वरिवोवित्तरा सुमतिराववृत्यात्। या त्वादित्येभ्यः प्राप्तोत्तमविद्याशिक्षाऽसत्, तया चिद् युक्त्या वा वां सदा मृडयन्तो भवत ॥४॥
भावार्थभाषाः - विवाहं कृत्वा स्त्रीपुरुषाभ्यामाप्तानां विदुषां सङ्गाद्येन येन कर्मणा विद्यासुशिक्षाबुद्धिधनं सौहार्दं परोपकारश्च वर्द्धेत, तत्तदनुष्ठेयमिति ॥४॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - गृहस्थाश्रमी स्त्री-पुरुषांनी ज्या कर्मामुळे विद्या, चांगले शिक्षण, बुद्धी, धन, सुहृदभाव व परोपकार वाढेल, असे कर्म केले पाहिजे.