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एज॑तु॒ दश॑मास्यो॒ गर्भो॑ ज॒रायु॑णा स॒ह। यथा॒यं वा॒युरेज॑ति॒ यथा॑ समु॒द्रऽएज॑ति। ए॒वायं दश॑मास्यो॒ऽअस्र॑ज्ज॒रायु॑णा स॒ह ॥२८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

एज॑तु। दश॑मास्य॒ इति॒ दश॑ऽमास्यः। गर्भः॑। ज॒रायु॑णा। स॒ह। यथा॑। अ॒यम्। वा॒युः। एज॑ति। यथा॑। स॒मु॒द्रः। एज॑ति। ए॒व। अ॒यम्। दश॑मास्य॒ इति॒ दश॑ऽमास्यः। अस्र॑त्। ज॒रायु॑णा। स॒ह ॥२८॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:28


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गृहस्थ धर्म्म में गर्भ की व्यवस्था अगले मन्त्र में कही है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्री-पुरुष ! जैसे (वायुः) पवन (एजति) कम्पता है, वा जैसे (समुद्रः) समुद्र (एजति) अपनी लहरी से उछलता है, वैसे तुम्हारा (अयम्) यह (दशमास्यः) पूर्ण दश महीने का गर्भ (एजतु) क्रम-क्रम से बढ़े और ऐसे बढ़ाता हुआ (अयम्) यह (दशमास्यः) दश महीने में परिपूर्ण होकर ही (अस्रत्) उत्पन्न होवे ॥२८॥
भावार्थभाषाः - ब्रह्मचर्यधर्म्म से शरीर की पुष्टि, मन की सन्तुष्टि और विद्या की वृद्धि को प्राप्त होकर और विवाह किये हुए जो स्त्री-पुरुष हों, वे यत्न के साथ गर्भ को रक्खें कि जिससे वह दश महीने के पहिले गिर न जाये, क्योंकि जो गर्भ दश महीने से अधिक दिनों का होता है, वह प्रायः बल और बुद्धिवाला होता है और जो इससे पहिले होता है, वह वैसा नहीं होता है ॥२८॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ गार्हस्थ्यधर्म्मे गर्भव्यवस्थामाह ॥

अन्वय:

(एजतु) चलतु (दशमास्यः) दशसु मासेषु भवः (गर्भः) ग्रियते सिच्यते गृह्यते वा स गर्भः, गर्भो गृभेर्गृणात्यर्थे, गिरत्यनर्थानिति वा। यदा हि स्त्रीगुणान् गृह्णाति गुणाश्चास्या गृह्यन्ते [अथ गर्भो भवति। (निरु०१०.२३) (जरायुणा) आवरणेन (सह) (यथा) (अयम्) (वायुः) (एजति) कम्पते (यथा) (समुद्रः) उदधिः (एजति) वर्द्धते (एव) अवधारणार्थे (अयम्) वर्त्तमानः (दशमास्यः) (अस्रत्) स्रंसतोऽधः स्रवतु, लोडर्थे लङ् (जरायुणा) (सह)। अयं मन्त्रः (शत०४.५.२.४-९) व्याख्यातः ॥२८॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे दम्पती ! यथायं वायुरेजति, यथा समुद्र एजति, तथा जरायुणा सह दशामास्यो गर्भ एजतु, क्रमेण वर्द्धमानोऽयं जरायुणा सह दशमास्य एवास्रत् स्रंसताम् ॥२८॥
भावार्थभाषाः - ब्रह्मचर्य्येण शरीरपुष्टिमनःसन्तुष्टिविद्यावृद्धिसम्पन्नौ कृतविवाहौ दम्पती यत्नेन गर्भरक्षणं कुर्य्याताम्, यतः स दशमास्यो दशमासात् पूर्वं न स्खलेत्। यो हि दशमासादूर्ध्वं जायते, स प्रायशो बलबुद्धियुक्तो भवति, तस्मात् पूर्वमुत्पद्यते नायं तादृग्भवति ॥२८॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ब्रह्मचर्याने ज्यांचे शरीर पुष्ट झालेले असून, मन संतुष्ट झालेले आहे व विद्या प्राप्त झालेली आहे, अशा स्त्री-पुरुषांनी विवाह करावा. त्यांनी प्रयत्नपूर्वक गर्भ वाढवावा. दहा महिन्यांच्या आधी गर्भपात होता कामा नये. कारण जो गर्भ दहा महिन्यांपेक्षा जास्त दिवसांचा असतो. तो नेहमी बलवान व बुद्धिमान असतो. जो तत्पूर्वी जन्मतो तो तसा नसतो.