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अ॒ग्नये॑ त्वा॒ मह्यं॒ वरु॑णो ददातु॒ सो᳖ऽमृत॒त्त्वम॑शी॒यायु॑र्दा॒त्रऽए॑धि॒ मयो॒ मह्यं॑ प्रतिग्रही॒त्रे रु॒द्राय॑ त्वा॒ मह्यं॒ वरु॑णो ददातु॒ सो᳖ऽमृत॒त्त्वम॑शीय प्रा॒णो दा॒त्रऽए॑धि॒ वयो॒ मह्यं॑ प्रतिग्रही॒त्रे बृह॒स्पत॑ये त्वा॒ मह्यं॒ वरु॑णो ददातु॒ सो᳖ऽमृत॒त्त्वम॑शीय॒ त्वग्दा॒त्रऽए॑धि॒ मयो॒ मह्यं॑ प्रतिग्रही॒त्रे य॒माय॑ त्वा॒ मह्यं॒ वरु॑णो ददातु॒ सो᳖ऽमृत॒त्त्वम॑शीय॒ हयो॑ दा॒त्रऽए॑धि॒ वयो॒ मह्यं॑ प्रतिग्रही॒त्रे ॥४७॥

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अ॒ग्नये॑। त्वा॒। मह्य॑म्। वरु॑णः। द॒दा॒तु॒। सः। अ॒मृ॒त॒त्वमित्य॑मृत॒ऽत्वम्। अ॒शी॒य॒। आयुः॑। दा॒त्रे। ए॒धि॒। मयः॑। मह्य॑म्। प्र॒ति॒ग्र॒ही॒त्र इति॑ प्रतिऽग्रही॒त्रे। रु॒द्रा॑य। त्वा॒। मह्य॑म्। वरु॑णः। द॒दा॒तु॒। सः। अ॒मृ॒त॒त्वमित्य॑मृत॒ऽत्वम्। अ॒शी॒य॒। प्रा॒णः। दा॒त्रे। ए॒धि॒। वयः॑। मह्य॑म्। प्र॒ति॒ग्र॒ही॒त्र इति॑ प्रतिऽग्रही॒त्रे। बृह॒स्पत॑ये। त्वा॒। मह्य॑म्। वरु॑णः। द॒दा॒तु॒। सः। अ॒मृ॒त॒त्वमित्य॑मृत॒ऽत्वम्। अ॒शी॒य॒। त्वक्। दा॒त्रे। ए॒धि॒। मयः॑। मह्य॑म्। प्र॒ति॒ग्र॒ही॒त्र इति॑ प्रतिऽग्रही॒त्रे। य॒माय॑। त्वा॒। मह्य॑म्। वरु॑णः। द॒दा॒तु॒। सः। अ॒मृ॒त॒त्वमित्य॑मृत॒ऽत्वम्। अ॒शी॒य॒। हयः॑। दा॒त्रे। ए॒धि॒। वयः॑। मह्य॑म्। प्र॒ति॒ग्र॒ही॒त्र इति॑ प्रतिऽग्रही॒त्रे ॥४७॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:47


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब किस प्रयोजन के लिये दान और प्रतिग्रह का सेवन करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वसुसंज्ञक पढ़ानेवाले ! जिस (अग्नये) चौबीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य्य का सेवन करके अग्नि के समान तेजस्वी होनेवाले (मह्यम्) मेरे लिये (त्वा) तुझ अध्यापक को (वरुणः) सर्वोत्तम विद्वान् (ददातु) देवे, (सः) वह मैं (अमृतत्वम्) अपने शुद्ध कर्म्मों से सिद्ध किये गये सत्य आनन्द को (अशीय) प्राप्त होऊँ, उस (दात्रे) दानशील विद्वान् का (आयुः) बहुत कालपर्य्यन्त जीवन (एधि) बढ़ाइये और (प्रतिग्रहीत्रे) विद्याग्रहण करनेवाले (मह्यम्) मुझ विद्यार्थी के लिये (मयः) सुख बढ़ाइये। हे दुष्टों को रुलानेवाले अध्यापक ! जिस (रुद्राय) चवालीस वर्ष पर्य्यन्त ब्रह्मचर्य्याश्रम का सेवन करके रुद्र के गुण धारण करने की इच्छावाले (मह्यम्) मेरे लिये (त्वा) रुद्र नामक पढ़ानेवाले आपको (वरुणः) अत्युत्तम गुणयुक्त (ददातु) देवे, (सः) वह मैं (अमृतत्वम्) मुक्ति के साधनों को (अशीय) प्राप्त होऊँ, उस (दात्रे) विद्या देनेवाले विद्वान् के लिये (प्राणः) योगविद्या का बल (एधि) प्राप्त कराइये और (प्रतिग्रहीत्रे) विद्याग्रहण करनेवाले (मह्यम्) मेरे लिये (वयः) तीनों अवस्था का सुख प्राप्त कीजिये। हे सूर्य्य के समान तेजस्वी अध्यापक ! जिस (बृहस्पतये) अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य्य सेवन की इच्छा करनेवाले (मह्यम्) मेरे लिये (त्वा) पूर्णविद्या पढ़ानेवाले आप को (वरुणः) पूर्णविद्या से शरीर और आत्मा के बलयुक्त विद्वान् (ददातु) देवे, (सः) वह मैं (अमृतत्वम्) विद्या के आनन्द का (अशीय) भोग करूं, उस (दात्रे) पूर्ण विद्या देनेवाले महाविद्वान् के अर्थ (त्वक्) सरदी-गरमी के स्पर्श का सुख (एधि) बढ़ाइये और (प्रतिग्रहीत्रे) पूर्ण विद्या के ग्रहण करनेवाले (मह्यम्) मुझ शिष्य के लिये (मयः) पूर्ण विद्या का सुख उन्नत कीजिये। हे गृहाश्रम से होनेवाले विषय सुख से विमुख विरक्त सत्योपदेश करनेहारे आप्त विद्वन् ! जिस (यमाय) गृहाश्रम के सुख के अनुराग से होनेवाले (मह्यम्) मेरे लिये (त्वा) सर्वदोषरहित उपदेश करनेवाले आप को (वरुणः) सकल शुभगुणयुक्त विद्वान् (ददातु) देवे, (सः) वह मैं (अमृतत्वम्) मुक्ति के सुख को (अशीय) प्राप्त होऊँ। उस (दात्रे) ब्रह्मविद्या देनेवाले महाविद्वान् के लिये (हयः) ब्रह्मज्ञान की वृद्धि (एधि) कीजिये और (प्रतिग्रहीत्रे) मोक्षविद्या के ग्रहण करनेवाले (मह्यम्) मेरे लिये (वयः) तीनों अवस्था के सुख को प्राप्त कीजिये ॥४७॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को योग्य है कि जो सब से उत्तम गुणवाला, सब विद्याओं में सब से बढ़कर विद्वान् हो, उसके आश्रय से अन्य अध्यापक विद्वानों की परीक्षा करके अपनी-अपनी कन्या और पुत्रों को उन-उन के पढ़ाने योग्य विद्वानों से पढ़वावें और पढ़नेवालों को भी चाहिये कि अपनी-अपनी अधिकन्यून बुद्धि को जान के अपने-अपने अनुकूल अध्यापकों की प्रीतिपूर्वक सेवा करते हुए उनसे निरन्तर विद्या का ग्रहण करें ॥४७॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ कस्मै प्रयोजनाय दानं प्रतिग्रहणं च सेवितव्यमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अग्नये) चतुर्विंशतिवर्षपर्य्यन्तम्ब्रह्मचर्य्यं संसेव्याग्निवत् तेजस्विभवाय (त्वा) वसुसंज्ञकमध्यापकम् (मह्यम्) (वरुणः) वरः सर्वोत्तमः प्रशस्तविद्योऽनूचानो विद्वानध्यापकः (ददातु) (सः) विद्यार्थी (अमृतत्वम्) क्रियासिद्धं नित्यं विज्ञानम् (अशीय) प्राप्नुयाम् (आयुः) अधिकं जीवनम् (दात्रे) विद्यादानशीलाय वरुणाय (एधि) वर्धयिता भव (मयः) सुखम्। मय इति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) (मह्यम्) विद्यार्थिने (प्रतिग्रहीत्रे) प्रतिग्रहकर्त्रे स्वस्तु (रुद्राय) चतुश्चत्वारिंशद्वर्षपर्य्यन्तम्ब्रह्मचर्यं सुसेव्य रुद्रगुणधारणाय (त्वा) रुद्राख्यमध्यापकम् (मह्यम्) विद्यार्ज्जनतत्पराय (वरुणः) वरगुणप्रदः (ददातु) (सः) (अमृतत्वम्) (अशीय) (प्राणः) योगसिद्धबलयुक्तः (दात्रे) (एधि) वर्धय (वयः) अवस्थात्रये सुखभोगं जीवनम् (मह्यम्) विद्याग्रहणप्रवृत्ताय (प्रतिग्रहीत्रे) अध्यापकादागताया विद्यायाः संवेत्रे (बृहस्पतये) अष्टचत्वारिंशद्वर्षपर्यन्तं ब्रह्मचर्य्यं सेवित्वा बृहत्या वेदविद्यावाचः पालकाय (त्वा) पूर्णविद्याध्यापयितारम् (मह्यम्) पूर्णविद्यामभीप्सवे (वरुणः) (ददातु) (सः) (अमृतत्वम्) (अशीय) (त्वक्) स्पर्शेन्द्रियसुखम् (दात्रे) (एधि) (मयः) सुखविशेषम् (मह्यम्) (प्रतिग्रहीत्रे) (यमाय) गृहाश्रमजन्यविषयसेवनादुपरताय यमनियमादियुक्ताय (त्वा) सर्वदोषरहितमुपदेशकम् (मह्यम्) सत्यासत्ययोर्निश्चयकरणशीलाय (वरुणः) सत्योपदेष्टाप्तः (ददातु) (सः) (अमृतत्वम्) (अशीय) (हयः) ज्ञानवर्द्धनम्, हि गति वृद्ध्योरित्यस्मादौणादिकोऽसुन् प्रत्ययः। (दात्रे) (एधि) (वयः) चिरजीवनसुखम् (मह्यम्) सर्ववृद्धिं चिकीर्षवे (प्रतिग्रहीत्रे) ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.३.४.२८-३१) व्याख्यातः ॥४७॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वसुसंज्ञकाध्यापक ! यस्मा अग्नये मह्यं त्वा वरुणो ददातु, सोऽहं यदमृतत्वमशीय प्राप्नुयां तत्तस्मै दात्रे वरुणायायुश्चिरजीवनमेधि, प्रतिग्रहीत्रे मह्यं शिष्याय मयः सुखं च। हे रुद्रसंज्ञकाध्यापक ! यस्मै रुद्राय मह्यं त्वा वरुणो ददातु, सोऽहं यदमृतत्वमशीय तत्तस्मै दात्रे वरुणाय प्राणत्वमेधि, प्रतिग्रहीत्रे मह्यं वयोऽवस्थात्रयसुखं च। हे आदित्यानामध्यापक ! यस्मै बृहस्पतये मह्यं त्वा वरुणो ददातु, सोऽहं यदमृतत्वमशीय तत्तस्मै दात्रे वरुणाय त्वगिन्द्रियसुखं त्वमेधि, प्रतिग्रहीत्रे मह्यं सुखं च। यस्मै जितेन्द्रिययमाय मह्यं त्वा वरुणो ददातु सोऽहं यदमृतत्वमशीय तत्तस्मै दात्रे वरुणाय हयो ज्ञानवर्द्धनं त्वमेधि, प्रतिग्रहीत्रे मह्यं वयोऽवस्थात्रयसुखं च ॥४७॥
भावार्थभाषाः - सर्वेषां जनानां योग्यमस्ति यः सर्वोत्कृष्टोऽनूचानो विद्वान् भवेत् तस्य सकाशादितरानध्यापकान् परीक्ष्य स्वस्वकन्याः पुत्रान् तत्तत्सदृशादध्यापकात् पाठयेयुः। अध्येतारश्च स्वस्वबुद्धिं न्यूनाधिकां ज्ञात्वा स्वस्वसदृशानध्यापकान् प्रीत्या सेवमानास्तेभ्यो नैरन्तर्य्येण विद्याग्रहणं कुर्य्युः ॥४७॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी सर्व विद्यांमध्ये पारंगत असलेल्या उत्तम व गुणवान विद्वानांकडून इतर विद्वान अध्यापकांची परीक्षा करून आपल्या मुलामुलींना योग्य अशा विद्वान अध्यापकांकडून शिक्षण द्यावे व विद्यार्थ्यांनीही आपापल्या तीव्र व न्यून बुद्धीनुसार अध्यापन करणाऱ्या अध्यापकांची प्रेमाने सेवा करून त्यांच्याकडून विद्या ग्रहण करावी.