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म॒हाँ२ऽइन्द्रो॒ यऽओज॑सा प॒र्जन्यो॑ वृष्टि॒माँ२ऽइ॑व। स्तोमै॑र्व॒त्सस्य॑ वावृधे। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि महे॒न्द्राय॑ त्वै॒ष ते॒ योनि॑र्महे॒न्द्राय॑ त्वा ॥४०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

म॒हान्। इन्द्रः॑। यः। ओज॑सा। प॒र्जन्यः॑। वृ॒ष्टि॒माँ२इ॑व। वृ॒ष्टि॒मानि॒वेति॑ वृष्टि॒मान्ऽइ॑व। स्तोमैः॑। व॒त्सस्य॑। वा॒वृ॒धे॒। व॒वृ॒ध इति॑ ववृधे। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। म॒हे॒न्द्रायेति॑ महाऽइ॒न्द्रा॑य। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। म॒हे॒न्द्रायेति॑ महाऽइ॒न्द्राय॑। त्वा॒ ॥४०॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:40


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी ईश्वर के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अनादिसिद्ध योगिन् सर्वव्यापी ईश्वर ! जो आप योगियों के (उपयामगृहीतः) यमनियमादि योग के अङ्गों से स्वीकार किये हुए (असि) हैं, इस कारण हम लोग (त्वा) आप के (महेन्द्राय) योग से प्रकट होनेवाले अच्छे ऐश्वर्य्य के लिये आश्रय करते हैं, (ते) आपका (एषः) यह योग हमारे कल्याण का (योनिः) निमित्त है, इसलिये (त्वा) आपका (महेन्द्राय) मोक्ष करानेवाले ऐश्वर्य के लिये ध्यान करते हैं, (यः) जो (महान्) बड़े-बड़े गुण, कर्म्म और स्वभाववाला (वृष्टिमान्) वर्षनेवाले (पर्जन्य इव) मेघ के तुल्य (वत्सस्य) स्तुतिकर्त्ता की (स्तोमैः) स्तुतियों से (ओजसा) अनन्त बल के साथ प्रकाशित होता है, उस ईश्वर को जानकर योगी (वावृधे) अत्यन्त उन्नति को प्राप्त होता है ॥४०॥
भावार्थभाषाः - जैसे मेघ वर्षा समय में अपने जल के समूह से सब पदार्थों को तृप्त करता हुआ उन्नति देता है, वैसे ईश्वर भी योगाभ्यास करनेवाले योगी पुरुष के योग को अत्यन्त बढ़ाता है ॥४०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

(महान्) महागुणकर्मस्वभावः (इन्द्रः) अखिलैश्वर्यः (यः) (ओजसा) अनन्तबलेन (पर्जन्यः) मेघः (वृष्टिमानिव) बह्व्यो वृष्टयो विद्यन्ते यस्मिंस्तद्वत् (स्तोमैः) स्तुतिभिः (वत्सस्य) यो वदति तस्य (वावृधे) अत्यन्तं वर्द्धते (उपयामगृहीतः) यमनियमादिभिर्योगाङ्गैः साक्षात् स्वीकृतः (असि) (महेन्द्राय) योगजाय महैश्वर्य्याय (त्वा) त्वाम् (एषः) (ते) तव (योनिः) निमित्तम् (महेन्द्राय) मोक्षप्रापकाय महैश्वर्य्याय (त्वा) त्वाम् ॥४०॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अनादिसिद्ध महायोगिन् सर्वव्यापिन्नीश्वर ! यतत्वं योगिभिरुपयामगृहीतोऽसि तस्मात् त्वा त्वां महेन्द्रायोपश्रयामहे, यतस्ते तवैष योगो योनिरस्त्यतस्त्वा त्वां महेन्द्राय वयं ध्यायेम। यो महान् वृष्टिमान् पर्जन्य इव वत्सस्य स्तोमैरोजसेन्द्रः सुखवर्षको भवति, तं विदित्वा योगी वावृधेऽत्यन्तं वर्द्धते ॥४०॥
भावार्थभाषाः - यथा मेघो वृष्टिसमये स्वजलसमूहेन सर्वान् पदार्थान् तर्पयन् सन् वर्द्धयति, तथैवेश्वरो योगाराधनतत्परं योगिनमभिवर्द्धयति ॥४०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा मेघ आपल्या जलाने सर्व पदार्थांना तृप्त करून त्यांची वृद्धी होण्यास साह्यभूत ठरतो तसेच ईश्वरही योगाभ्यास करणाऱ्या योगी पुरुषांची उन्नती होण्यास कारणीभूत ठरतो.