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इन्द्रा॑ग्नी॒ऽआग॑तꣳ सु॒तं गी॒र्भिर्नभो॒ वरे॑ण्यम्। अ॒स्य पा॑तं धि॒येषि॒ता। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसीन्द्रा॒ग्निभ्यां॑ त्वै॒ष ते॒ योनि॑रिन्द्रा॒ग्निभ्यां॑ त्वा ॥३१॥

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पद पाठ

इन्द्रा॑ग्नी॒ऽइतीन्द्रा॑ग्नी। आ। ग॒त॒म्। सु॒तम्। गी॒र्भिरिति॑ गीः॒ऽभिः। नभः॑। वरे॑ण्यम्। अ॒स्य। पा॒त॒म्। धि॒या। इ॒षि॒ता। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इ॒न्द्रा॒ग्निभ्या॒मिती॑न्द्रा॒ग्निऽभ्याम्। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इ॒न्द्रा॒ग्निभ्या॒मिती॑न्द्रा॒ग्निऽभ्याम्। त्वा॒ ॥३१॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:31


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राज्य व्यवहार से नियत राजकर्म्म में प्रवृत्त हुए राजा और प्रजा के पुरुषों के प्रति कोई सत्कार से कहता है, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्राग्नी) सूर्य्य और अग्नि के तुल्य प्रकाशमान सभापति और सभासद् ! तुम दोनों (आगतम्) आओ मिलकर (गीर्भिः) अच्छी शिक्षायुक्त वाणियों से हमारे लिये (वरेण्यम्) श्रेष्ठ (नभः) सुख को (सुतम्) उत्पन्न करो तथा (इषिता) पढ़ाये हुए वा हमारी प्रार्थना को प्राप्त हुए तुम (धिया) अपनी बुद्धि वा राजशासन कर्म से (अस्य) इस सुख की (पातम्) रक्षा करो। वे राजा और सभासद् कहते हैं कि हे प्रजाजन ! तू (उपयामगृहीतः) प्रजा के धर्म्म और नियमों से स्वीकार किया हुआ (असि) है, (त्वा) तुझ को (इन्द्राग्निभ्याम्) उक्त महाशयों के लिये हम लोग वैसा ही मानते हैं, (एषः) यह राजनीति (ते) तेरा (योनिः) घर है (इन्द्राग्निभ्याम्) उक्त महाशयों के लिये (त्वा) तुझ को हम चिताते हैं अर्थात् राजशासन को प्रकाशित करते हैं ॥३१॥
भावार्थभाषाः - अकेला पुरुष यथोक्त राजशासन कर्म नहीं कर सकता, इस कारण और श्रेष्ठ पुरुषों का सत्कार करके राज कार्य्यों में युक्त करे, वे भी यथायोग्य व्यवहार में इस राजा का सत्कार करें ॥३१॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राज्यव्यवहारेण नियुक्ते कर्म्मणि प्रवर्त्तमानौ राजप्रजापुरुषौ प्रति कश्चित् सत्कारेणाह ॥

अन्वय:

(इन्द्राग्नी) सूर्य्याग्नी इव प्रकाशमानौ सभापतिसभासदौ (आगतम्) आगच्छतम् (सुतम्) सुनुतम्। अत्र बहुलं छन्दसि। (अष्टा०२.४.७३) इति विकरणस्य लुक्। (गीर्भिः) सुशिक्षिताभिर्वाग्भिः (नभः) सुखम्। नभ इति साधारणनामसु पठितम्। (निघं०१.४) (वरेण्यम्) (अस्य) नभसः, कर्म्मणि षष्ठी। (पातम्) रक्षतम् (धिया) प्रज्ञया कर्म्मणा वा (इषिता) प्रेषितौ प्रार्थितौ वा (उपयामगृहीतः) (असि) (इन्द्राग्निभ्याम्) (त्वा) त्वाम् (एषः) राजन्यायः (ते) तव (योनिः) गृहम् (इन्द्राग्निभ्याम्) (त्वा) त्वाम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.३.१.२४) व्याख्यातः ॥३१॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजप्रजाजनौ ! युवामिन्द्राग्नी इवागतं गीर्भिरस्मभ्यं वरेण्य नभः सुतं धियेषिता युवामस्य नभसः पातं रक्षतम्। तावाहतुः—हे प्रजाजन ! त्वमुपयामगृहीतोऽसि त्वा त्वामिन्द्राग्निभ्यां स्वीकृतं वयं मन्यामहे एष ते योनिरस्त्यतस्त्वामिन्द्राग्निभ्यां चेतयामहे ॥३१॥
भावार्थभाषाः - नह्येकाकी पुमान् यथोक्तराज्यकर्म्मकर्त्तुं शक्नोति, अतः प्रजाजनान् सत्कृत्य राज्यकर्म्मणि नियोजयेत्, ते च यथोक्तव्यवहारेण तं राजानं सत्कुर्य्युरिति ॥३१॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - एकटा माणूस यथायोग्य राज्यकारभार करू शकत नाही त्यामुळे न सज्जन माणसांचा सत्कार करून त्यांना राज्यकारभारात नियुक्त करावे व त्यांनीही योग्य व्यवहार करून राजाबद्दल आदर दर्शवावा.