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मू॒र्द्धानं॑ दि॒वोऽअ॑र॒तिं पृ॑थि॒व्या वै॑श्वान॒रमृ॒तऽआ जा॒तम॒ग्निम्। क॒विꣳ स॒म्राज॒मति॑थिं॒ जना॑नामा॒सन्ना पात्रं॑ जनयन्त दे॒वाः ॥२४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मू॒र्द्धान॑म्। दि॒वः। अ॒र॒तिम्। पृ॒थि॒व्याः। वै॒श्वा॒न॒रम्। ऋ॒ते। आ। जा॒तम्। अ॒ग्निम्। क॒विम्। स॒म्राज॒मिति॑ स॒म्ऽराज॑म्। अति॑थिम्। जना॑नाम्। आ॒सन्। आ। पात्र॑म्। ज॒न॒य॒न्त॒। दे॒वाः ॥२४॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:24


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

इसके अनन्तर विद्वानों का कर्म्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (देवाः) धनुर्वेद के जाननेवाले विद्वन् लोग उस धनुर्वेद की शिक्षा से (दिवः) प्रकाशमान सूर्य के (मूर्द्धानम्) शिर के समान (पृथिव्याः) पृथिवी के गुणों को (अरतिम्) प्राप्त होनेवाले (ऋते) सत्य मार्ग में (आजातम्) सत्य व्यवहार में अच्छे प्रकार प्रसिद्ध (वैश्वानरम्) समस्त मनुष्यों को आनन्द पहुँचाने और (जनानाम्) सत्पुरुषों के (अतिथिम्) अतिथि के समान सत्कार करने योग्य और (आसन्) अपने शुद्ध यज्ञरूप मुख में (पात्रम्) समस्त शिल्प-व्यवहार की रक्षा करने (कविम्) और अनेक प्रकार से प्रदीप्त होनेवाले (अग्निम्) शुभगुण प्रकाशित अग्नि को (सम्राजम्) एकचक्र राज्य करनेवाले के समान (आ) अच्छे प्रकार से (जनयन्त) प्रकाशित करते हैं, वैसे सब मनुष्यों को करना योग्य है ॥२४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सत्पुरुष धनुर्वेद के जाननेवाले परोपकारी विद्वान् लोग धनुर्वेद में कही हुई क्रियाओं से यानों और शस्त्रास्त्र विद्या में अनेक प्रकार से अग्नि को प्रदीप्त कर शत्रुओं को जीता करते हैं, वैसे ही अन्य सब मनुष्यों को भी अपना आचरण करना योग्य है ॥२४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वत्कृत्यमाह ॥

अन्वय:

(मूर्द्धानम्) शिरोवद्वर्त्तमानम् (दिवः) द्योतमानस्य सूर्य्यस्य (अरतिम्) ऋच्छति प्राप्नोति तम् (पृथिव्याः) (वैश्वानरम्) यो विश्वान् नरानानन्दान् नयति तम्। वैश्वानरः कस्माद्विश्वान्नरान्नयति विश्व एनं नरा नयन्तीति वापि वा विश्वानर एव स्यात्। (निरु०७.२१)। (ऋते) सत्ये, ऋतमिति सत्यनामसु पठितम्। (निघं०३.१०) (आ) समन्तात् (जातम्) प्रसिद्धम् (अग्निम्) शुभगुणैः प्रकाशमानम् (कविम्) क्रान्तदर्शनम् (सम्राजम्) चक्रवर्त्तिनमिव (अतिथिम्) अतिथिवत्पूज्यम् (जनानाम्) सत्पुरुषाणाम् (आसन्) मुखे, अत्रास्य शब्दस्य पद्दन्नोमास० (अष्टा०६.१.६३) अनेनासन्नादेशः। सुपां सुलुक्० (अष्टा०७.१.३९) इति सप्तम्येकवचनस्य लुक्। (आ) समन्तात् (पात्रम्) पाति रक्षति समस्तं शिल्पव्यवहारं यस्तम् (जनयन्त) उत्पादयन्तु, अत्र लोडर्थे लङडभावश्च। (देवाः) धनुर्वेदविदो विद्वांसः ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.२.४.२४ ॥ तथा ब्रा० ५.१) व्याख्यातः ॥२४॥

पदार्थान्वयभाषाः - यथा देवा धनुर्विदो विद्वांसो धनुर्वेदशिक्षया दिवो मूर्द्धानं पृथिव्या अरतिमृतमाजातं वैश्वानरं जनानामतिथिमासन् पात्रं कविमग्निं सम्राजमिवाजनयन्त तथा सर्वैरनुष्ठेयम् ॥२४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा सत्पुरुषा धनुर्वेदज्ञाः परोपकारिणो विद्वांसो धनुर्वेदोक्तक्रियाभिर्यानेषु शस्त्रास्त्रविद्यायां चानेकधाग्निं प्रदीप्य शत्रून् विजयन्ते, तथैवान्यैरपि सर्वैर्जनैराचरणीयम् ॥२४॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे धनुर्वेदाचे उत्तम जाणकार, परोपकारी विद्वान लोक धनुर्वेदानुसार अग्नी प्रदीप्त करून याने व शस्त्रास्त्रे यामध्ये तो वापरतात आणि शत्रूंना जिंकतात तसेच इतर माणसांनीही वागावे.