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विष्णोः॒ कर्म्मा॑णि पश्यत॒ यतो॑ व्र॒तानि॑ पस्प॒शे। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑ ॥४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विष्णोः॑ कर्म्मा॑णि। प॒श्य॒त॒। यतः॒। व्र॒तानि॑। प॒स्प॒शे। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑ ॥४॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:4


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सभापति अपने सभासद् आदि को क्या-क्या उपदेश करे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभासदो ! जैसे (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (युज्यः) सदाचारयुक्त (सखा) मित्र (विष्णोः) उस व्यापक ईश्वर के (कर्माणि) जो संसार का बनाना पालन और संहार करना सत्यगुण हैं, उनको देखता हुआ मैं (यतः) जिस ज्ञान से (व्रतानि) अपने मन में सत्यभाषणादि नियमों को (पस्पशे) बाँध रहा अर्थात् नियम कर रहा हूँ, वैसे उसी ज्ञान से तुम भी परमेश्वर के उत्तम गुणों को (पश्यत) दृढ़ता से देखो कि जिस से राज्यादि कामों में सत्य व्यवहार के करनेवाले होओ ॥४॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वर से प्रीति और सत्याचरण के विना कोई भी मनुष्य ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव को देखने के योग्य नहीं हो सकता, न वैसे हुए विना राज्यकर्मों को यथार्थ न्याय से सेवन कर सकता है, न सत्य धर्माचार से रहित जन राज्य बढ़ाने को कभी समर्थ हो सकता है ॥४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सभाध्यक्षः सभ्यादीन् मनुष्यान् प्रति किं किमुपदिशेदित्याह ॥

अन्वय:

(विष्णोः) व्यापकस्य (कर्माणि) जगत उत्पत्तिस्थितिसंहृत्यादीनि (पश्यत) संप्रेक्षध्वम् (यतः) येन विज्ञानेन (व्रतानि) नियतसत्यभाषणादीनि (पस्पशे) बध्नाति, अत्र लडर्थे लिट्। (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (युज्यः) युनक्ति सदाचारेणेति युज्यः, अत्रौणादिकः क्यप्। (सखा) मित्रम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.७.१.१७) व्याख्यातः ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभ्यजना ! यूयं यथेन्द्रस्य युज्यः सखा विष्णोः कर्म्माणि पश्यन्नहं यतो विज्ञानेन मनसि व्रतानि सत्यभाषणादिनियमान् पस्पशे बध्नामि, तथा तेनैव विज्ञानेन तानि यूयं पश्यत, यतो राज्यकर्म्माणि सत्यानुष्ठातारो भवत ॥४॥
भावार्थभाषाः - नहि परमेश्वराविरोधसत्याचरणाभ्यां विना कश्चिदीश्वरगुणकर्मस्वभावान् द्रष्टुमर्हति, न तथाभूतेन विना राज्यकर्मणि यथार्थतया सेवितुं शक्नोति, नो खलु सत्याचरणमन्तरा राज्यं वर्धयितुं प्रभुर्भवति ॥४॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - परमेश्वरभक्ती व सत्याचरण याखेरीज कोणताही माणूस ईश्वराचे गुण, कर्म, स्वभाव जाणू शकत नाही व राज्याची कामे करताना योग्य न्यायही देऊ शकत नाही. असत्य धर्मी माणसे राज्याची उन्नती कधीच करू शकत नाहीत.