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देवी॑रापोऽअपां नपा॒द्यो व॑ऽऊ॒र्मिर्ह॑वि॒ष्य᳖ऽइन्द्रि॒यावा॑न् म॒दिन्त॑मः। तं दे॒वेभ्यो॑ देव॒त्रा द॑त्त शुक्र॒पेभ्यो॒ येषां॑ भा॒ग स्थ॒ स्वाहा॑ ॥२७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

देवीः॑। आ॒पः। अ॒पा॒म्। नपा॒त्। यः। वः॒। ऊ॒र्म्मिः। ह॒वि॒ष्यः॒। इ॒न्द्रि॒यावा॑न्। इ॒न्द्रि॒यवा॒निती॑न्द्रिय॒ऽवा॑न्। म॒दिन्त॑म॒ इति॑ म॒दिन्ऽत॑मः। तम्। दे॒वेभ्यः॑। दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। द॒त्त॒। शु॒क्र॒पेभ्य इति॑ शुक्र॒ऽपेभ्यः॑। येषा॑म्। भा॒गः। स्थ। स्वाहा॑ ॥२७॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:27


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा और प्रजा कैसे वर्त्ताव को वर्तें, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (आपः) श्रेष्ठ गुणों में व्याप्त (देवीः) शुभकर्मों से प्रकाशमान प्रजालोगो ! तुम राजसेवी (स्थ) हो, (शुक्रपेभ्यः) शरीर और आत्मा के पराक्रम के रक्षक (देवेभ्यः) दिव्यगुणयुक्त विद्वानों के लिये (येषाम्) जिन (वः) तुम्हारा बली रूप विद्वानों का (यः) जो (अपां नपात्) जलों के नाशरहित स्वाभाविक (ऊर्मिः) जलतरंग के सदृश प्रजारक्षक (इन्द्रियावान्) जिस में प्रशंसनीय इन्द्रियाँ होती हैं और (मदिन्तमः) आनन्द देनेवाला (हविष्यः) भोग के योग्य पदार्थों से निष्पन्न (भागः) भाग हैं, वे तुम सब (तम्) उसको (स्वाहा) आदर के साथ ग्रहण करो, जैसे राजादि सभ्यजन (देवत्रा) दिव्य भोग देते हैं, वैसे तुम भी इसको आनन्द (दत्त) देओ ॥२७॥
भावार्थभाषाः - प्रजाजनों को यह उचित है कि आपस में सम्मति कर किसी उत्कृष्ट गुणयुक्त सभापति को राजा मान कर राज्य-पालन के लिये कर देकर न्याय को प्राप्त हों ॥२७॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरेते कथं वर्तेरन्नित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(देवीः) दिव्याः (आपः) आप्ताः प्रजाः (अपां नपात्) अविनश्वरः (यः) (वः) युष्माकम् (ऊर्मिः) जलतरङ्ग इव (हविष्यः) हविर्भ्यो हितः (इन्द्रियावान्) प्रशस्तानीन्द्रियाणि यस्मिन् सः (मदिन्तमः) मदयतीति मदी सोऽतिशयितः। नाद् घस्य। (अष्टा०८.२.१७) इति ‘मदिन्’ शब्दान्नुडागमः। (तम्) (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (देवत्रा) दिव्यान् गुणान् (दत्त) (शुक्रपेभ्यः) शुक्रं वीर्यं रक्षन्ति तेभ्यः (येषाम्) (भागः) (स्थ) (स्वाहा) ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.९.३.२५) व्याख्यातः ॥२७॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे आपो देवीर्देव्यः प्रजा ! यूयं राजभक्ता स्थ भवत, शुक्रपेभ्यो देवेभ्यो येषां वो युष्माकमपां नपादूर्मिरिवेन्द्रियावान् मदिन्तमो हविष्यो भोगोऽस्ति, तं स्वाहा सद्वाचा गृह्णीत। तथा राजादयः सभ्या जना देवत्रा दिव्यान् भोगान् युष्मभ्यं प्रददति तथैतेभ्यो यूयमपि दत्त ॥२७॥
भावार्थभाषाः - प्रजाजनानामिदमुचितमुत्कृष्टगुणं सभापतिं मत्वा राज्यपालनाय करं दत्त्वा न्यायं प्राप्नुयुरिति ॥२७॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्रजेने आपापसात विचारविनिमय करून एखाद्या उत्कृष्ट व गुणवान सभापतीला राजा निवडावे व राज्याचे पालन होण्यासाठी कर द्यावा आणि त्याच्याकडून न्याय प्राप्त करून घ्यावा.