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ऐ॒न्द्रः प्रा॒णोऽअङ्गे॑ऽअङ्गे॒ निदी॑ध्यदै॒न्द्रऽउ॑दा॒नोऽअङ्गे॑ऽअङ्गे॒ निधी॑तः। देव॑ त्वष्ट॒र्भूरि॑ ते॒ सꣳस॑मेतु॒ सल॑क्ष्मा॒ यद्विषु॑रूपं॒ भवा॑ति। दे॒व॒त्रा यन्त॒म॑वसे॒ सखा॒योऽनु॑ त्वा मा॒ता पि॒तरो॑ मदन्तु ॥२०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऐ॒न्द्रः। प्रा॒णः। अङ्गे॑ऽअङ्ग॒ इत्यङ्गे॑ऽअङ्गे। नि। दी॒ध्य॒त्। ऐ॒न्द्रः। उ॒दा॒न इत्यु॑त्ऽआ॒नः। अङ्गे॑ऽअङ्ग॒ इत्यङ्गे॑ऽअङ्गे। निधी॑त॒ इति॒ निऽधीतः। देव॑। त्व॒ष्ट॒। भूरि॑। ते॒। सꣳस॒मिति॒ सम्ऽस॑म्। ए॒तु॒। सल॒क्ष्मेति॒ सऽल॑क्ष्म। यत्। विषु॑रूप॒मिति॒ वि॒षु॑ऽरूपम्। भवा॑ति। दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। यन्त॑म्। अव॑से। सखा॑यः। अनु॑। त्वा॒। मा॒ता॒। पि॒तरः॑। म॒द॒न्तु॒ ॥२०॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:20


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर संग्राम में वीर पुरुष आपस में कैसे वर्तें, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (त्वष्टः) शत्रुबलविदारक (देव) दिव्यविद्यासम्पन्न सेनापति ! आप (अवसे) रक्षा आदि के लिये (अङ्गे अङ्गे) जैसे अङ्ग-अङ्ग में (ऐन्द्रः) इन्द्र अर्थात् जीव जिस का देवता है, वह सब शरीर में ठहरनेवाला प्राणवायु सब वायुओं को तिरस्कार करता हुआ आप ही प्रकाशित होता है, वैसे आप संग्राम में सब शत्रुओं का तिरस्कार करते हुए (निदीध्यत्) प्रकाशित हूजिये अथवा (अङ्गे अङ्गे) जैसे अङ्ग-अङ्ग में (उदानः) अन्न आदि पदार्थों को ऊर्ध्व पहुँचानेवाला उदानवायु प्रवृत्त है, वैसे अपने विभव से सब वीरों को उन्नति देते हुए संग्राम में (निधीतः) निरन्तर स्थापित किये हुए के समान प्रकाशित हूजिये (यत्) जो (ते) आप का (विषुरूपम्) विविध रूप (सलक्ष्म) परस्पर युद्ध का लक्षण (भवाति) हो, वह (संग्रामे) संग्राम में (भूरि) विस्तार से (संसम्) (एतु) प्रवृत्त हो। हे सेनाध्यक्ष ! तेरी रक्षा के लिये सब शूरवीर पुरुष (सखायः) मित्र हो के वर्तें, (माता) माता (पितरः) पिता, चाचा, ताऊ, भृत्य और शुभचिन्तक (देवत्रा) देवों अर्थात् विद्वानों, धर्मयुक्त युद्ध और व्यवहार को (यन्तम्) प्राप्त होते हुए (त्वा) तेरा (अनुमदन्तु) अनुमोदन करें ॥२०॥
भावार्थभाषाः - सब प्राणियों का मित्रभाव वर्त्तनेवाला सेनापति जैसे प्रत्येक अङ्ग में प्राण और उदान प्रवर्त्तमान हैं, वैसे संग्राम में विचरता हुआ सेना और राजपुरुषों को हर्षित करके शत्रुओं को जीते ॥२०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तत्रान्योन्यं कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(ऐन्द्रः) इन्द्रो जीवो देवताऽस्य स ऐन्द्रः (प्राणः) शरीरस्थो वायुविशेषः (अङ्गे अङ्गे) यथा प्रत्यङ्गं प्रकाशते (नि) नितराम् (दीध्यत्) युद्धे शत्रून् वञ्चित्वा स्वयं प्रकाशेत (ऐन्द्रः) विद्युद्देवताकः (उदानः) य ऊर्ध्वमनिति (अङ्गे अङ्गे) यथा प्रत्यङ्गम् (निधीतः) निहित इव (देव) दिव्यविद्यासम्पन्न सेनाध्यक्ष ! (त्वष्टः) शत्रुबलच्छेत्तः ! (भूरि) बहु (ते) तव (सम् सम्) एकीभावे। अत्र प्रसमुपोदः पादपूरणे। (अष्टा०८.१.६) इति समित्यस्य द्वित्वम्। (एतु) प्राप्नोतु (सलक्ष्म) समानं लक्ष्म यस्य तत्। अत्र अन्येषामपि दृश्यते। (अष्टा०६.३.१३७) इति दीर्घः। (विषुरूपम्) व्यापकं विविधरूपं वा (भवाति) भवतु। (देवत्रा) देवं देवमिति देवत्रा (यन्तम्) गच्छन्तम् (अवसे) रक्षणाय (सखायः) सुहृदः सन्तः (अनु) (त्वा) त्वाम् (माता) जननी (पितरः) रक्षका जनकाः (मदन्तु) हर्षन्तु ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.८.३.३७) व्याख्यातः ॥२०॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे त्वष्टर्देव सेनापते ! भगवन् अङ्गे अङ्गे ऐन्द्रः प्राण इवावसे संग्रामे निदीध्यत् यद्वा अङ्गे अङ्गे उदान इव संग्रामे निधीतो भवति। यत् ते तव विषुरूपं सलक्ष्म भवाति तत्संग्रामे भूरि यथा स्यात् तथा संसमेतु। सखायो माता पितरश्च देवत्रा धर्म्यं युद्धं व्यवहारं वा यन्तं त्वा त्वामनुमदन्तु ॥२०॥
भावार्थभाषाः - सेनापतिः सर्वमित्रोऽङ्गेऽङ्गे प्राण उदान इव संग्रामे विचरन् सेनास्थवीरान् प्रजास्थपुरुषांश्च हर्षयित्वा शत्रून् विजयीत ॥२०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे शरीराच्या प्रत्येक अंगामध्ये प्राण व उदान असतात तसे सेनापतीने सर्व वीर पुरुषांशी मित्रभावाने मिळून मिसळून वागावे व युद्धामध्ये सेना व प्रजा यांना आनंदित करून शत्रूंना जिंकावे.