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देवी॑रापः शु॒द्धा वो॑ढ्व॒ꣳ सुप॑रिविष्टा दे॒वषु॒ सुप॑रिविष्टा व॒यं प॑रि॒वे॒ष्टारो॑ भूयास्म ॥१३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

देवीः॑। आ॒पः॒। शु॒द्धाः। वो॒ढ्व॒म्। सुप॑रिविष्टा॒ इति॑ सुऽप॑रिविष्टाः॒। दे॒वेषु॑। सुप॑रिविष्टा॒ इति॒ सुऽप॑रिविष्टाः॒। व॒यम्। प॒रि॒वे॒ष्टार॒ इति॑ परिऽवे॒ष्टारः॑। भू॒या॒स्म॒ ॥१३॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:13


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ब्रह्मचारी बालक और ब्रह्मचारिणी कन्याओं को गुरुपत्नियों का कैसे मान करना चाहिये, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे कुमारियो ! तुम जैसे (आपः) श्रेष्ठगुणों में रमण करनेवाली (शुद्धाः) सत्कर्माऽनुष्ठान से पवित्र (देवीः) विद्या प्रकाशवती विदुषी स्त्रीजन (देवेषु) श्रेष्ठ विद्वान् पतियों के निमित्त (सुपरिविष्टाः) और उन की सेवा करने को सम्मुख प्रवृत्त होकर अपने समान पतियों को (वोढ्वम्) प्राप्त होती हैं और वे विद्वान् पतिजन उन स्त्रियों को प्राप्त होते हैं, वैसे तुम हो और हम भी (परिवेष्टारः) उस कर्म की योग्यता को (भूयास्म) पहुँचें। ॥१३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विदुषी अर्थात् विद्वानों की स्त्री पातिव्रत धर्म में तत्पर रहती हैं, वैसे ब्रह्मचारिणी कन्या भी उनके गुण और स्वभाववाली हों और ब्रह्मचारी भी गुरुजनों की शिक्षा से स्त्री और पुरुष आदि की रक्षा करने में तत्पर हों ॥१३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ वटुभिर्ब्रह्मचारिणीभिश्च गुरुपत्न्यः कथं सम्माननीया इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(देवीः) सद्विद्याप्रकाशवत्यः (आपः) आप्नुवन्ति सद्गुणान् यास्ताः (शुद्धाः) सत्कर्म्मानुष्ठानपूताः (वोढ्वम्) स्वयंवरविवाहविधिं प्राप्नुत। अत्र वह प्रापण इत्यस्माल्लोटि मध्यमबहुवचने बहुलं छन्दसि [अष्टा०२.४.७३] इति शपो लुकि कृते सहिवहोरोदवर्णस्य। (अष्टा०६.३.११२) इत्यनेनौकारः (सुपरिविष्टाः) तत्तत्सेवासम्मुख्यां एव। (देवेषु) सद्विद्यादिदिव्यगुणेषु विद्वत्सु (सुपरिविष्टाः) तथाभूता एव (वयम्) (परिवेष्टारः) परितो व्याप्ताः (भूयास्म) ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.८.२.३) व्याख्यातः ॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे कुमार्यः ! यथापः सद्गुणेषु व्याप्ता शुद्धा देवीः विदुष्यः सत्स्त्रियो देवेषु सद्विद्यादिदिव्यगुणेषु विद्वत्सु स्वपतिषु सुपरिविष्टाः कृतब्रह्मचर्याः स्वसमान् वरान् स्वीकृतवत्यः, यथा च ते विद्वांसस्ता विदुषीः प्राप्तास्तथा यूयं स्त्रीभावेनास्मान् प्राप्नुतैवं वयमपि परिवेष्टारो भूयास्म ॥१३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विदुष्यो विदुषां स्त्रियः पातिव्रत्यधर्म्मतत्परा भवन्ति, तथा ब्रह्मचारिण्यः कन्यास्तद्गुणस्वभावा भवेयुर्ब्रह्मचारिण्यो गुरुजनस्वभावाः स्युः, यतः सुशिक्षया स्त्रीपुत्रादिरक्षणशीला भवेयुरिति ॥१३॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे विद्वान पुरुषांच्या विदुषी स्त्रिया पातिव्रत्यात दृढ असतात त्याप्रमाणेच ब्रह्मचारिणी मुलींनी दृढ बनावे. ब्रह्मचाऱ्यांनीही गुरूपासून शिक्षण घ्यावे व स्त्री-पुरुषांचे तत्परतेने रक्षण करावे.