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अग्ने॑ व्रतपा॒स्त्वे व्र॑तपा॒ या तव॑ त॒नूर्मय्यभू॑दे॒षा सा त्वयि॒ यो मम॑ त॒नूस्त्वय्यभू॑दि॒यꣳ सा मयि॑। य॒था॒य॒थं नौ॑ व्रतपते व्र॒तान्यनु॑ मे दी॒क्षां दी॒क्षाप॑ति॒रम॒ꣳस्तानु॒ तप॒स्तप॑स्पतिः ॥४०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्ने॑। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रतऽपाः। ते॒। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रतऽपाः। या। तव॑। त॒नूः। मयि॑। अभू॑त्। ए॒षा। सा। त्वयि॑। योऽइति॒ यो। मम॑। तनूः। त्वयि॑। अभू॑त्। इ॒यम्। सा। मयि॑। य॒था॒य॒थमिति॑ यथाऽय॒थम्। नौ। व्र॒त॒प॒त॒ इति॑ व्रतऽपते। व्र॒तानि॑। अनु। मे॒। दी॒क्षाम्। दी॒क्षाप॑ति॒रिति॑ दीक्षाऽप॑तिः। अमं॑स्त। अनु॑। तपः॑। तप॑स्पति॒रिति॒ तपः॑ऽपतिः ॥४०॥

यजुर्वेद » अध्याय:5» मन्त्र:40


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे वर्त्तें, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (व्रतपाः) जैसे सत्य का पालने हारा विद्वान् हो वैसे (अग्ने) हे विशेष ज्ञानवान् पुरुष ! जो मेरा (व्रतपाः) सत्यविद्या गुणों का पालने हारा आचार्य्य (अभूत्) हुआ था, वैसे मैं (ते) तेरा होऊँ (या) जो (तव) तेरी (तनूः) विद्या आदि गुणों में व्याप्त होनेवाला देह है (सा) वह (मयि) तेरे मित्र मुझ में भी हो (एषा) यह (त्वयि) मेरे मित्र मुझ में भी हो (यो) जो (मम) मेरी (तनूः) विद्या की फैलावट है (सा) वह (त्वयि) मेरे पढ़ानेवाले तुझ में हो (इयम्) यह (मयि) तेरे शिष्य मुझ में बुद्धि हो। (व्रतपते) हे सत्य आचरणों के पालने हारे ! जैसे सत्य गुण, सत्य उपदेश का रक्षक विद्वान् होता है, वैसे मैं और तू (यथायथम्) यथायुक्त मित्र होकर (व्रतानि) सत्य आचरणों का वर्त्ताव वर्त्तें। हे मित्र ! जैसे (तव) तेरा (दीक्षापतिः) यथोक्त उपदेश का पालने हारा तेरे लिये (दीक्षाम्) सत्य का उपदेश (अमंस्त) करना जान रहा है, वैसे मेरा मेरे लिये (अनु) जाने। जैसे तेरा (तपस्पतिः) अखण्ड ब्रह्मचर्य्य को पालनेहारा आचार्य तेरे लिये (तपः) पहिले क्लेश और पीछे सुख देने हारे ब्रह्मचर्य्य को करना जान रहा है, वैसे मेरा अखण्ड ब्रह्मचर्य्य का पालने हारा मेरे लिये जाने ॥४०॥
भावार्थभाषाः - जैसे पहिले विद्या पढ़ानेवाले अध्यापक लोग हुए वैसे हम लोगों को भी होना चाहिये। जब तक मनुष्य सुख-दुःख, हानि और लाभ की व्यवस्था में परस्पर अपने आत्मा के तुल्य दूसरे को नहीं जानते, तब तक पूर्ण सुख को प्राप्त नहीं होते, इस से मनुष्य लोग श्रेष्ठ व्यवहार ही किया करें ॥४०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अग्ने) विज्ञानोन्नत (व्रतपाः) यथा सत्यपालको विद्वांस्तथा तत्सम्बुद्धौ (ते) तव (व्रतपाः) पूर्ववत् (या) (तव) (तनूः) व्याप्तिनिमित्तं शरीरम् (मयि) त्वत्सखे (अभूत्) भवतु (एषा) समक्षे वर्त्तमाना (सा) (त्वयि) मन्मित्रे (यो) या (मम) (तनूः) विद्याविस्तृतिः (त्वयि) मदध्यापके (अभूत्) भवति (इयम्) गोचरा (सा) (मयि) त्वच्छिष्ये (यथायथम्) यथार्थम् (नौ) आवाम् (व्रतपते) यथा सत्यानां रक्षकस्तथा तत्सम्बुद्धौ (व्रतानि) नियतानि सत्याचरणानि (अनु) पश्चादर्थे (मे) मम (दीक्षाम्) व्रतोपदेशम् (दीक्षापतिः) यथाव्रतादेशपालकः (अमंस्त) मन्यते तथा पश्चाद्योगे (तपः) प्राक्क्लेशमुत्तरानन्दं ब्रह्मचर्य्यम् (तपस्पतिः) यथा ब्रह्मचर्य्यादिपालकः। अयं मन्त्रः (शत०३.६.३.२१) व्याख्यातः ॥४०॥

पदार्थान्वयभाषाः - व्रतपा अग्ने विद्वांस्त्वं यथा मे व्रतपा अभूत्, यथा तेऽहं व्रतपा भवेयम्। या तव तनूः सा मयि भवतु, यैषा त्वयि मतिरस्ति सा मयि स्यात्। यो या मम तनूः सा त्वयि भवतु। हे व्रतपते ! यथाऽयं जनो व्रतपतिर्भवति तथा त्वं चाहं च नौ सखायौ भूत्वा यथायथं व्रतानि सत्याचरणान्यनुचरेव। हे मित्र ! यथा तव दीक्षापतिस्तुभ्यं दीक्षाममंस्त तथा मे मम दीक्षामन्वमंस्त। यथा ते तव तपस्पतिस्त्वदर्थं तपोऽन्वमंस्त तथा मे ममापि तपस्पतिर्मदर्थं तपोऽमंस्त ॥४०॥
भावार्थभाषाः - यथा पूर्वं विद्वत्कारिणोऽध्यापका अभूवन् तथाऽस्मदादिभिरपि भवितव्यम्। यावन्मनुष्याः सुखदुःखहानिलाभव्यवस्थायां परस्परं स्वात्मवन्न वर्त्तन्ते, न तावत्पूर्णं सुखं लभन्ते तस्मादेतत्सर्वं मनुष्यैः कुतो नानुष्ठेयमिति ॥४०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्राचीन काळी जसे विद्वान अध्यापक होऊन गेले तसेच आपणही बनावे. जोपर्यंत माणसे आपल्याप्रमाणेच इतरांचे सुखदुःख, हानी-लाभ जाणत नाहीत तोपर्यंत ते पूर्ण सुखी होऊ शकत नाहीत. त्यामुळे माणसांनी श्रेष्ठ व्यवहारच करावा.