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तदे॑जति॒ तन्नैज॑ति॒ तद् दू॒रे तद्व॑न्ति॒के। तद॒न्तर॑स्य॒ सर्व॑स्य॒ तदु॒ सर्व॑स्यास्य बाह्य॒तः ॥५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। ए॒ज॒ति॒। तत्। न। ए॒ज॒ति॒। तत्। दू॒रे। तत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। अ॒न्ति॒के ॥ तत्। अ॒न्तः। अ॒स्य॒। सर्व॑स्य। तत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। सर्व॑स्य। अ॒स्य॒। बा॒ह्य॒तः ॥५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:40» मन्त्र:5


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्वानों के निकट और अविद्वानों के ब्रह्म दूर है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (तत्) वह ब्रह्म (एजति) मूर्खों की दृष्टि से चलायमान होता (तत्) (न, एजति) अपने स्वरूप से न चलायमान और न चलाया जाता (तत्) वह (दूरे) अधर्मात्मा अविद्वान् अयोगियों से दूर अर्थात् क्रोड़ों वर्ष में भी नहीं प्राप्त होता (तत्) वह (उ) ही (अन्तिके) धर्मात्मा विद्वान् योगियों के समीप (तत्) वह (अस्य) इस (सर्वस्य) सब जगत् वा जीवों के (अन्तः) भीतर (उ) और (तत्) वह (अस्य, सर्वस्य) इस प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षरूप के (बाह्यतः) बाहर भी वर्त्तमान है ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! वह ब्रह्म मूढ़ की दृष्टि में कम्पता जैसा है, वह आप व्यापक होने से कभी नहीं चलायमान होता, जो जन उसकी आज्ञा से विरुद्ध हैं, वे इधर-उधर भागते हुए भी उसको नहीं जानते और जो ईश्वर की आज्ञा का अनुष्ठानवाले वे अपने आत्मा में स्थित अति निकट ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, जो ब्रह्म सब प्रकृति आदि के बाहर-भीतर अवयवों में अभिव्याप्त हो के अन्तर्यामिरूप से सब जीवों के सब पाप पुण्यरूप कर्मों को जानता हुआ यथार्थ फल देता है, वही सबको ध्यान में रखना चाहिये और इसी से सबको डरना चाहिये ॥५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विदुषां निकटेऽविदुषां च ब्रह्म दूरेऽस्तीत्याह ॥

अन्वय:

(तत्) (एजति) कम्पते चलति मूढदृष्ट्या (तत्) (न) (एजति) कम्पते कम्प्यते वा (तत्) (दूरे) अधर्मात्मभ्योऽविद्वद्भ्योऽयोगिभ्यः (तत्) (उ) (अन्तिके) धर्मात्मनां विदुषां योगिनां समीपे (तत्) (अन्तः) आभ्यन्तरे (अस्य) (सर्वस्य) अखिलस्य जगतो जीवसमूहस्य वा (तत्) (उ) (सर्वस्य) समग्रस्य (अस्य) प्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षात्मकस्य (बाह्यतः) बहिरपि वर्त्तमानः ॥५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! तद् ब्रह्मैजति तन्नैजति तद् दूरे तद्वन्तिके सर्वस्यान्तस्तदु सर्वस्याऽस्य बाह्यतो वर्त्तत इति निश्चिनुत ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! तद्ब्रह्म मूढदृष्टौ कम्पत इव तत्स्वतो व्यापकत्वात् कदाचिन्न चलति, ये तदाज्ञाविरुद्धास्ते इतस्ततो धावन्तोऽपि तन्न विजानन्ति। ये चेश्वराज्ञानुष्ठातारस्ते स्वात्मस्थमतिनिकटं ब्रह्म प्राप्नुवन्ति, यद्ब्रह्म सर्वस्य प्रकृत्यादेर्बाह्याऽभ्यन्तरावयवानभिव्याप्य सर्वेषां जीवानामन्तर्यामिरूपतया सर्वाणि पापपुण्यात्मककर्माणि विजानन् याथातथ्यं फलं प्रयच्छत्येतदेव सर्वैर्ध्येयमस्मादेव सर्वैर्भेतव्यमिति ॥५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! ब्रह्म हे मूर्खाच्या दृष्टीने चलायमान असते. वास्तविक सर्वव्यापक असल्यामुळे ते कधीही चलायमान होत नाही. जे लोक त्याच्या आज्ञेविरुद्ध इकडे-तिकडे भटकतात ते त्याला जाणू शकत नाहीत व जे ईश्वराच्या आज्ञेचे पालन करतात ते आपल्या आत्म्यात अतिनिकट स्थित असलेल्या ब्रह्माला प्राप्त करतात. ब्रह्म प्रकृतीच्या आत व बाहेर व्याप्त असून अंतर्यामी रूपाने सगळ्या जीवांचे सर्व पाप पुण्यरूपी कर्म जाणून यथार्थ फळ देते हे सर्वांनी लक्षात ठेवले पाहिजे व सर्वांना त्याचेच भय वाटले पाहिजे.