अब वेदोक्त कर्म की उत्तमता अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्य (इह) इस संसारे में (कर्माणि) धर्मयुक्त वेदोक्त निष्काम कर्मों को (कुर्वन्) करता हुआ (एव) ही (शतम्) सौ (समाः) वर्ष (जिजीविषेत्) जीवन की इच्छा करे (एवम्) इस प्रकार धर्मयुक्त कर्म में प्रवर्त्तमान (त्वयि) तुझ (नरे) व्यवहारों को चलानेहारे जीवन के इच्छुक होते हुए (कर्म) अधर्मयुक्त अवैदिक काम्य कर्म (न) नहीं (लिप्यते) लिप्त होता (इतः) इस से जो (अन्यथा) और प्रकार से (न, अस्ति) कर्म लगाने का अभाव नहीं होता है ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य आलस्य को छोड़ कर सब देखने हारे न्यायाधीश परमात्मा और करने योग्य उसकी आज्ञा को मानकर शुभ कर्मों को करते हुए अशुभ कर्मों को छोड़ते हुए ब्रह्मचर्य के सेवन से विद्या और अच्छी शिक्षा को पाकर उपस्थ इन्द्रिय के रोकने से पराक्रम को बढ़ा कर अल्पमृत्यु को हटावे, युक्त आहार-विहार से सौ वर्ष की आयु को प्राप्त होवें। जैसे-जैसे मनुष्य सुकर्मों में चेष्टा करते हैं, वैसे-वैसे ही पापकर्म से बुद्धि की निवृत्ति होती और विद्या, अवस्था और सुशीलता बढ़ती है ॥२ ॥