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एदम॑गन्म देव॒यज॑नं पृथि॒व्या यत्र॑ दे॒वासो॒ऽअजु॑षन्त॒ विश्वे॑। ऋ॒क्सा॒माभ्या॑ स॒न्तर॑न्तो॒ यजु॑र्भी रा॒यस्पोषे॑ण॒ समि॒षा म॑देम। इ॒माऽआपः॒ शमु॑ मे सन्तु दे॒वीरोष॑धे॒ त्राय॑स्व॒ स्वधि॑ते॒ मैन॑ꣳहिꣳसीः ॥१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। इ॒दम्। अ॒ग॒न्म॒। दे॒व॒यज॑न॒मिति॑ देव॒यज॑नम्। पृ॒थि॒व्याः। यत्र॑। दे॒वासः॑। अजु॑षन्त। विश्वे॑। ऋ॒क्सा॒माभ्या॒मित्यृ॑क्ऽसा॒माभ्या॑म्। स॒न्तर॑न्त॒ इति॑ स॒म्ऽतर॑न्तः। यजु॑र्भि॒रिति॒ यजुः॑ऽभिः। रा॒यः। पोषे॑ण। सम्। इ॒षा। म॒दे॒म॒। इ॒माः। आपः॑। शम्। ऊँ॒ऽइ॒त्यूँ॑। मे॒। स॒न्तु॒। दे॒वीः। ओष॑धे। त्राय॑स्व। स्वधि॑त॒ इति॒ स्वऽधि॑ते। मा। ए॒न॒म्। हि॒ꣳसीः॒ ॥१॥

यजुर्वेद » अध्याय:4» मन्त्र:1


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब चौथे अध्याय का प्रारम्भ किया जाता है, इसके प्रथम मन्त्र में जल के गुण, स्वभाव और कृत्य का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (पृथिव्या) भूमि पर मनुष्यजन्म को प्राप्त होके जो (इदम्) यह (देवयजनम्) विद्वानों का यजन पूजन वा उन के लिये दान है, उस को प्राप्त होके (यत्र) जिस देश में (ऋक्सामाभ्याम्) ऋग्वेद, सामवेद तथा (यजुर्भिः) यजुर्वेद के मन्त्रों में कहे कर्म (रायस्पोषेण) धन की पुष्टि (समिषा) उत्तम-उत्तम विद्या आदि की इच्छा वा अन्न आदि से दुःखों के (सन्तरन्तः) अन्त को प्राप्त होते हुए (विश्वे) सब (देवासः) विद्वान् हम लोग सुखों को (अगन्म) प्राप्त हों, (अजुषन्त) सब प्रकार से सेवन करें, (मदेम) सुखी रहें, (उ) और भी (मे) मेरे सुनियम, विद्या, उत्तम शिक्षा से सेवन किये हुए (इमाः) ये (देवीः) शुद्ध (आपः) जल सुख देनेवाले होते हैं, वैसे वहाँ तू भी उन को प्राप्त हो (जुषस्व) सेवन और आनन्द कर। वे जल आदि पदार्थ भी तुझ को (शम्) सुख करानेवाले (सन्तु) होवें, जैसे (ओषधे) सोमलता आदि ओषधिगण सब रोगों से रक्षा करता है, वैसे तू भी हम लोगों की (त्रायस्व) रक्षा कर। (स्वधिते) रोगनाश करने में वज्र के समान होकर (एनम्) इस यजमान वा प्राणीमात्र को (मा हिꣳसीः) कभी मत मार ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य लोग ब्रह्मचर्यपूर्वक अङ्ग और उपनिषद् सहित चारों वेदों को पढ़ कर, औरों को पढ़ा कर, विद्या को प्रकाशित कर और विद्वान् होके उत्तम कर्मों के अनुष्ठान से सब प्राणियों को सुखी करें, वैसे ही इन विद्वानों का सत्कार कर, इनसे वैदिक विद्या को प्राप्त होकर, श्रेष्ठ आचार तथा उत्तम औषधियों के सेवन से कष्टों का निवारण करके शरीर वा आत्मा की पुष्टि से धन का अत्यन्त सञ्चय करके सब मनुष्यों को आनन्दित होना चाहिये ॥१॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ जलगुणस्वभावकृत्यमुपदिश्यते ॥

अन्वय:

(आ) समन्तात् (इदम्) वक्ष्यमाणम् (अगन्म) प्राप्नुयाम, अत्र लिङर्थे लुङ् (देवयजनम्) देवानां विदुषां यजनं पूजनं तेभ्यो दानं च (पृथिव्याः) भूमेर्मध्ये (यत्र) देशे (देवासः) विद्वांसः (अजुषन्त) प्रीतवन्तः सेवितवन्तः (विश्वे) सर्वे (ऋक्सामाभ्याम्) ऋचन्ति स्तुवन्ति पदार्थान् येन स ऋग्वेदः। सामयन्ति सान्त्वयन्ति कर्मान्तं फलं प्राप्नुवन्ति येन स सामवेदः, ऋक् च साम च ताभ्याम्। अत्र अचतुरविचतुरसुचतुरस्त्रीपुंसधेन्वनडुहर्क्साम०। (अष्टा०५.४.७७) इति सूत्रेणायं समासान्तोऽच् प्रत्ययेन निपातितः (सन्तरन्तः) दुःखस्यान्तं प्राप्नुवन्तः (यजुर्भिः) यजुर्वेदस्थमन्त्रोक्तैः कर्मभिः (रायः) धनस्य (पोषेण) पुष्ट्या (सम्) सम्यगर्थे (इषा) इष्टविद्ययाऽन्नादिना वा (मदेम) सुखयेम, अत्र विकरणव्यत्ययः (इमाः) प्रत्यक्षाः (आपः) जलानि (शम्) सुखकारिकाः (उ) वितर्के (मे) मम (सन्तु) भवन्तु (देवीः) शुद्धा रोगनाशिकाः, अत्र वा च्छन्दसि। [अष्टा०६.१.१०६] इति जसः पूर्वसवर्णत्वम् (ओषधे) सोमाद्योषधिगणः (त्रायस्व) त्रायतात् (स्वधिते) रोगनाशने स्वधितिर्वज्रवत् प्रवर्त्तमानः। स्वधितिरिति वज्रनामसु पठितम्। (निघं०२.२०) (मा) निषेधार्थे (एनम्) यजमानं प्राणिसमूहं वा (हिꣳसीः) हिंस्यात्, अत्र लिङर्थे लुङ्। अयं मन्त्रः (शत० (३.१.१.११-१२; ३.१.२.१-१०) व्याख्यातः ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा पृथिव्या मध्ये मनुष्यजन्म देवयजनं प्राप्य यत्र ऋक्सामाभ्यां यजुर्भी रायस्पोषेण दुःखानि सन्तरन्तो विश्वे देवासो वयं सुखान्यगन्माजुषन्त मदेम सुखयेम। उ इति वितर्के मे मम विद्यासुशिक्षाभ्यां सेविता इमा देव्य आपः सुखकारिकाः सन्ति, तथैव तत्र त्वं ता जुषस्व, तवैताः शं सन्तु सुखकारिका भवन्तु। यथौषधे सोमलताद्यौषधिगणो रोगेभ्यस्त्रायते, तथा त्वं नस्त्रायस्व, स्वधितिर्वज्रस्त्वमेनं जीवं मा हिंसीर्हननं मा कुर्य्याः ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा मनुष्याः साङ्गान् सरहस्याँश्चतुरो वेदानधीत्यान्यानध्याप्य विद्यां प्रदीप्य, विद्वांसो भूत्वा सुकर्मानुष्ठानेन सर्वान् प्राणिनः सुखयेयुस्तथैवैतान् सत्कृत्यैतेभ्यो वैदिकविद्यां प्राप्य, श्रेष्ठाचारौषधिसेवनाभ्यां दुःखान्तं गत्वा, शरीरात्मपुष्ट्या धनं समुपचित्य सर्वैर्मनुष्यैरानन्दितव्यम् ॥१॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी ब्रह्मचर्याचे पालन करून वेदांग, उपनिषदे व वेदांचे अध्ययन करावे. इतरांनाही विद्या शिकवावी, विद्वान व्हावे व उत्तम कर्माचे अनुष्ठान करावे आणि सर्व जीवांना सुखी करावे. तसेच अशा विद्वानांचा सन्मान करून त्यांच्याकडून वैदिक विद्या ग्रहण करावी. शरीर व आत्मा यांचे बल वाढवावे व धनाचा संचय करून सर्वांनी आनंदित व्हावे.