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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि वा पुरुष ! (घर्मः) यज्ञ के तुल्य प्रकाशमान मैं (स्वाहा) सत्यवाणी से (अङ्गिरस्वते) विद्युत् आदि विद्या जाननेवाले (यमाय) न्यायाधीश के अर्थ (पितृमते) रक्षक ज्ञानी जनों से युक्त सन्तान के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया से (घर्माय) यज्ञ के लिये और (स्वाहा) सत्यक्रिया से (पित्रे) रक्षक के लिये (त्वा) तुझको स्वीकार करती वा करता हूँ ॥९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में भी (उप, यच्छामि) पदों की अनुवृत्ति आती है। जो स्त्री-पुरुष प्राण के तुल्य, न्याय, पितरों और विद्वानों का सेवन करें, वे यज्ञ के तुल्य सबको सुखकारी होवें ॥९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(यमाय) न्यायाधीशाय (त्वा) त्वाम् (अङ्गिरस्वते) विद्युदादिविद्या यस्मिन् विद्यन्ते तस्मै (पितृमते) पितरः पालका विज्ञानिनो विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै (स्वाहा) (स्वाहा) (घर्माय) यज्ञाय (स्वाहा) (घर्मः) यज्ञः (पित्रे) पालकाय ॥९ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि पुरुष वा ! घर्मोऽहं स्वाहाऽङ्गिरस्वते यमाय पितृमते स्वाहा घर्माय स्वाहा पित्रे त्वोपयच्छामि ॥९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपयच्छामीति पदे अनुवर्त्तेते। यौ स्त्रीपुरुषौ प्राणवन्न्यायं जनकान् विदुषश्च सेवेतां तौ यज्ञवत् सर्वेषां सुखकरौ स्याताम् ॥९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रातही (उप यच्छामि) पदांची अनुवृत्ती झालेली आहे. जे स्री-पुरुष प्राणाप्रमाणे न्यायी असून, पितरांचे व विद्वानांचे अनुसरण करतात. ते यज्ञासारखे सर्वांना सुख देतात.