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इन्द्रा॑य त्वा॒ वसु॑मते रु॒द्रव॑ते॒ स्वाहेन्द्रा॑य त्वादि॒त्यव॑ते॒ स्वाहेन्द्रा॑य त्वाभिमाति॒घ्ने स्वाहा॑। स॒वि॒त्रे त्व॑ऽऋभु॒मते॑ विभु॒मते॒ वाज॑वते॒ स्वाहा॒ बृह॒स्पत॑ये त्वा वि॒श्वदे॑व्यावते॒ स्वाहा॑ ॥८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रा॑य। त्वा॒। वसु॑मत॒ इति॒ वसु॑ऽमते। रु॒द्रव॑त॒ इति॑ रु॒द्रऽव॑ते। स्वाहा॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। आ॒दि॒त्यव॑त॒ इत्या॑दि॒त्यऽव॑ते। स्वाहा॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। अ॒भि॒मा॒ति॒घ्न इत्य॑भिऽमाति॒घ्ने। स्वाहा॑ ॥ स॒वि॒त्रे। त्वा॒। ऋ॒भु॒मत॒ इत्यृ॑भु॒ऽमते॑। वि॒भु॒मत॒ इति॑ विभु॒ऽमते॑। वाज॑वत॒ इति॒ वाज॑ऽवते। स्वाहा॑। बृह॒स्पत॑ये। त्वा॒। वि॒श्वदे॑व्यावते। वि॒श्वेदे॑व्यवत॒ इति॑ वि॒श्वऽदे॑व्यऽवते। स्वाहा॑ ॥८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:38» मन्त्र:8


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर स्त्री-पुरुषों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्री वा पुरुष ! मैं (स्वाहा) सत्यवाणी से (वसुमते) बहुत धनयुक्त (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्यवाले सन्तान के अर्थ (त्वा) तुझको (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (आदित्यवते) समस्त विद्याओं की पण्डिताई से युक्त (रुद्रवते) बहुत प्राणों के बलवाले (इन्द्राय) दुःखनाशक सन्तान के लिये (त्वा) तुझको (स्वाहा) सत्यवाणी से (अभिमातिघ्ने) शत्रुओं को मारनेवाले (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्य देनेवाले सन्तान के लिये (त्वा) तुझको (स्वाहा) सत्यक्रिया से (सवित्रे) सूर्यविद्या के ज्ञाता (ऋभुमते) अनेक बुद्धिमानों के साथी (विभुमते) विभु आकाशादि पदार्थों को जिसने जाना है, (वाजवते) पुष्कल अन्नवाले सन्तान के अर्थ (त्वा) तुझको और (स्वाहा) सत्यवाणी से (बृहस्पतये) बड़ी वेदरूपवाणी के रक्षक (विश्वदेव्यावते) समस्त विद्वानों के हितकारी पदार्थोंवाले सन्तान के लिये (त्वा) तुझको ग्रहण करता वा करती हूँ ॥८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में भी (उप, यच्छामि) इन पदों की अनुवृत्ति आती है। जो स्त्री-पुरुष पृथिवी आदि वसुओं और चैत्रादि महीनों से अपने ऐश्वर्य को बढ़ाते हैं, वे विघ्नों को नष्ट कर बुद्धिमान् सन्तानों को प्राप्त होकर सबकी रक्षा करने को समर्थ होते हैं ॥८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स्त्रीपुरुषैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(इन्द्राय) परमैश्वर्याय (त्वा) त्वां स्त्रियं पुरुषं वा (वसुमते) बहुधनयुक्ताय (रुद्रवते) बहवो रुद्राः प्राणा विद्यन्ते यस्मिँस्तस्मै (स्वाहा) सत्यया वाचा क्रियया वा (इन्द्राय) दुःखविदारकाय (त्वा) (आदित्यवते) पूर्णविद्यायुक्तपाण्डित्यवते (स्वाहा) (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रदाय (त्वा) (अभिमातिघ्ने) योऽभिमातीन् शत्रून् हन्ति तस्मै (स्वाहा) (सवित्रे) सवितृविद्याविदे (त्वा) (ऋभुमते) बहव ऋभवो मेधाविनो विद्यन्ते यस्मिँस्तस्मै (विभुमते) विभवः पदार्था विदिता येन तस्मै (वाजवते) पुष्कलान्नयुक्ताय (स्वाहा) (बृहस्पतये) बृहत्या वाचः पत्ये (त्वा) (विश्वदेव्यावते) विश्वानि देव्यानि विद्यन्ते यस्मिँस्तस्मै (स्वाहा) ॥८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि पुरुष ! वाऽहं स्वाहा वसुमत इन्द्राय त्वा स्वाहाऽऽदित्यवते रुद्रवत इन्द्राय त्वा स्वाहाऽभिमातिघ्न इन्द्राय त्वा स्वाहा सवित्र ऋभुमते विभुमते वाजवते त्वा स्वाहा बृहस्पतये विश्वदेव्यावते त्वोपयच्छमि ॥८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्राप्युपयच्छामीति पदे अनुवर्त्तेते। ये स्त्रीपुरुषा वसुभिरादित्यैरैश्वर्यमुन्नयन्ति ते विघ्नान् हत्वा बुद्धिमतः सन्तानान् प्राप्य सर्वस्य रक्षां विधातुं शक्नुवन्ति ॥८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात (उप यच्छामि) या पदांची अनुवृत्ती झालेली आहे. जे स्री-पुरुष पृथ्वी इत्यादी वसूद्वारे चैत्र वगैरे महिन्यात आपले ऐश्वर्य वाढवितात. त्याची संकटे नाहीशी होतात व त्यांनी बुद्धिमान संतान प्राप्ती होते, तसेच ते सर्वांचे रक्षणकर्ते बनण्यास समर्थ होतात.