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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) सुन्दर रीति से वर्त्तमान स्त्री-पुरुष ! तुम वायु और बिजुली के तुल्य (घर्मम्) गृहाश्रम व्यवहार के अनुष्ठान की (अपाताम्) रक्षा करो (द्यावापृथिवी) सूर्य्य-भूमि के समान गृहाश्रम व्यवहार के अनुष्ठान का (अनु, अमंसाताम्) अनुमान किया करो, जिससे कि (इह) गृहाश्रम में (रातयः) विद्यादिजन्य सुखों के दान (एव) ही (सन्तु) होवें ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु और बिजुली तथा सूर्य और भूमि साथ वर्त्तकर सुख देते हैं, वैसे स्त्री-पुरुष प्रीति के साथ वर्त्तमान हुए सबके लिये अतुल सुख देवें ॥१३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(अपाताम्) रक्षेतम् (अश्विना) सुरीत्या वर्त्तमानौ स्त्रीपुरुषौ (घर्मम्) गृहाश्रमव्यवहाराऽनुष्ठानम् (अनु) आनुकूल्ये (द्यावापृथिवी) सूर्य्यभूमी इव (अमंसाताम्) मन्येताम् (इह) अस्मिन्नाश्रमे (एव) (रातयः) विद्यादिसुखदानानि (सन्तु) ॥१३ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे अश्विना ! युवां वायुविद्युताविव घर्ममपातां द्यावापृथिवी इव घर्ममन्वमंसातां यत इह रातय एव सन्तु ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायुविद्युतौ भूमिसूर्यौ सह वर्त्तित्वा सुखानि दत्तस्तथैव स्त्रीपुरुषौ प्रीत्या सह वर्त्तमानौ सर्वेभ्योऽतुलं सुखं दद्याताम् ॥१३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचक लुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायू व विद्युत आणि सूर्य व भूमी बरोबर राहून सुख देतात. तसे स्री-पुरुषांनी प्रेमाने राहावे व सर्वांना खूप सुख द्यावे.