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दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आ द॒देऽदि॑त्यै॒ रास्ना॑ऽसि ॥१ ॥

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पद पाठ

दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम् ॥ आ। द॒दे॒। अदि॑त्यै। रास्ना॑। अ॒सि॒ ॥१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:38» मन्त्र:1


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अड़तीसवें अध्याय का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में स्त्री को कैसी होना चाहिये, इस विषय को कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विदुषि स्त्री ! जिस कारण तू (अदित्यै) नाशरहित नीति के लिये (रास्ना) दानशील (असि) है, इससे (सवितुः) समस्त जगत् के उत्पादक (देवस्य) कामना के योग्य परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न होनेवाले जगत् में (अश्विनोः) सूर्य और चन्द्रमा के (बाहुभ्याम्) बल-पराक्रम के तुल्य बाहुओं से (पूष्णः) पोषक वायु के (हस्ताभ्याम्) गमन और धारण के समान हाथों से (त्वा) तुझको (आ, ददे) ग्रहण करूँ ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - हे स्त्री ! जैसे सूर्य्य भूगोलों का, प्राण शरीर का और अध्यापक-उपदेशक सत्य का ग्रहण करते हैं, वैसे ही तुमको मैं ग्रहण करता हूँ, तू निरन्तर अनुकूल सुख देनेवाली हो ॥१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ पत्न्या किंभूतया भवितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(देवस्य) कमनीयस्य (त्वा) त्वाम् (सवितुः) सकलजगदुत्पादकस्य (प्रसवे) उत्पत्तिधर्मके (अश्विनोः) सूर्याचन्द्रमसोः (बाहुभ्याम्) बलवीर्य्याभ्यामिव भुजाभ्याम् (पूष्णः) पोषकस्य (हस्ताभ्याम्) गतिधारणाभ्यामिव कराभ्याम् (आ) (ददे) गृह्णीयाम् (अदित्यै) नाशरहितायै नीत्यै (रास्ना) दात्री (असि) भवसि ॥१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विदुषि ! यतस्त्वमदित्यै रास्नासि तस्मात् सवितुर्देवस्य प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां त्वाऽऽददे ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - हे स्त्रि ! यथा सूर्यो भूगोलान् प्राणः शरीरमध्यापकोपदेशकौ सत्यं गृह्णन्ति, तथैव त्वामहं गृह्णामि। त्वं सततमनुकूला सुखप्रदा च भव ॥१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे स्रिये ! सूर्य भूगोलाचा स्वीकार करतो, प्राण शरीराचा स्वीकार करतो व अध्यापक उपदेशक जसा सत्याचा स्वीकार करतात तसा मी तुझा स्वीकार करतो. तू निरंतर अनुकूल सुख देणारी असावीस.