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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! आप (शतम्) असंख्य ऐश्वर्य देते हुए (अभि, ऊतिभिः) सब ओर से प्रवृत्त रक्षादि क्रियाओं से (नः) हमारे (सखीनाम्) मित्रों और (जरितॄणाम्) सत्य स्तुति करनेवालों के (अविता) रक्षा करनेवाले (सु, भवासि) सुन्दर प्रकार हूजिये, इससे आप हमको सत्कार करने योग्य हैं ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो रागद्वेष रहित, किन्हीं से वैरभाव न रखने अर्थात् सबसे मित्रता रखनेवाला, सब मित्र मनुष्यों को असंख्य ऐश्वर्य और अधिकतर विज्ञान देके सब ओर से रक्षा करता है, उसी परमेश्वर की नित्य सेवा किया करो ॥६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(अभि) सर्वतः। अत्र निपातस्य च [अ꠶६.३.१३६] इति दीर्घः। (सु) शोभने (नः) अस्माकम् (सखीनाम्) मित्राणाम् (अविता) रक्षिता (जरितॄणाम्) सत्यस्तावकानाम् (शतम्) असंख्यम् (भवासि) भवेः (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः ॥६ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! यतस्त्वं शतं दददभ्यूतिभिर्नः सखीनां जरितॄणामविता सुभवासि, तस्मादस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यो रागद्वेषरहितानामजातशत्रूणां सर्वेषां सुहृदां मनुष्याणामसंख्यमैश्वर्यमतुलं विज्ञानं च प्रदाय सर्वतोऽभिरक्षति, तमेव परमेश्वरं नित्यं सेवध्वम् ॥६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जो रोग द्वेष रहित आहे, कुणाशीही वैरभाव ठेवत नाही, सर्वांशी मित्रत्वाच्या भावनेने वागतो, आपल्या भक्तांना ऐश्वर्याने व विज्ञानाने युक्त करून सर्व प्रकारे रक्षण करतो त्याच परमेश्वराची नित्य भक्ती करा.