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ऋचं॒ वाचं॒ प्र प॑द्ये॒ मनो॒ यजुः॒ प्र प॑द्ये॒ साम॑ प्रा॒णं प्र प॑द्ये॒ चक्षुः॒ श्रोत्रं॒ प्र प॑द्ये। वागोजः॑ स॒हौजो॒ मयि॑ प्राणापा॒नौ ॥१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋच॑म्। वाच॑म्। प्र। प॒द्ये॒। मनः॑। यजुः॑। प्र। प॒द्ये॒। साम॑। प्रा॒णम्। प्र। प॒द्ये॒। चक्षुः॑। श्रोत्र॑म्। प्र। प॒द्ये॒ ॥ वाक्। ओजः॑। स॒ह। ओजः॑। मयि॑। प्रा॒णा॒पा॒नौ ॥१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:36» मन्त्र:1


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छत्तीसवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है, इसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के सङ्ग से क्या होता है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (मयि) मेरे आत्मा में (प्राणापानौ) प्राण और अपान ऊपर-नीचे के श्वास दृढ़ हों, मेरी (वाक्) वाणी (ओजः) मानस बल को प्राप्त हो, उस वाणी और उन श्वासों के (सह) साथ मैं (ओजः) शरीर बल को प्राप्त होऊँ (ऋचम्) ऋग्वेदरूप (वाचम्) वाणी को (प्र, पद्ये) प्राप्त होऊँ (मनः) मनन करनेवाले के तुल्य (यजुः) यजुर्वेद को (प्र, पद्ये) प्राप्त होऊँ (प्राणम्) प्राण की क्रिया अर्थात् योगाभ्यासादिक उपासना के साधक (साम) सामवेद को (प्र, पद्ये) प्राप्त होऊँ (चक्षुः) उत्तम नेत्र और (श्रोत्रम्) श्रेष्ठ कान को (प्र, पद्ये) प्राप्त होऊँ, वैसे तुम लोग इन सबको प्राप्त होओ ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! तुम लोगों के सङ्ग से मेरी ऋग्वेद के तुल्य प्रशंसनीय वाणी, यजुर्वेद के समान मन, सामवेद के सदृश प्राण और सत्रह तत्त्वों से युक्त लिङ्ग शरीर स्वस्थ, सब उपद्रवों से रहित और समर्थ होवे ॥१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वत्सङ्गेन किञ्जायत इत्याह ॥

अन्वय:

(ऋचम्) प्रशंसनीयमृग्वेदम् (वाचम्) वाणीम् (प्र) (पद्ये) प्राप्नुयाम् (मनः) मननात्मकं चित्तम् (यजुः) यजुर्वेदम् (प्र) (पद्ये) (साम) सामवेदम् (प्राणम्) (प्र) (पद्ये) (चक्षुः) चष्टे पश्यति येन तत् (श्रोत्रम्) शृणोति येन तत् (प्र) (पद्ये) (वाक्) वाणी (ओजः) मानसं बलम् (सह) (ओजः) शारीरं बलम् (मयि) आत्मनि (प्राणापानौ) प्राणश्चाऽपानश्च तावुच्छ्वासनिःश्वासौ ॥१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा मयि प्राणापानौ दृढौ भवेतां मम वागोजः प्राप्नुयात् तया ताभ्यां च सहाऽहमोजः प्राप्नुयामृचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये साम प्राणं प्रपद्ये चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये तथा यूयमेतानि प्राप्नुत ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! युष्मत्सङ्गेन मम ऋगिव प्रशंसनीया वाग्यजुरिव मनः साम इव प्राणः सप्तदशतत्त्वात्मकं लिङ्गं शरीरञ्च स्वस्थं निरुपद्रवं समर्थं भवतु ॥१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! तुमच्या संगतीने माझी वाणी ऋग्वेदाप्रमाणे प्रशंसनीय व्हावी. यजुर्वेदाप्रमाणे मन बनावे व सामवेदाप्रमाणे योगाभ्यासाने युक्त असे प्राण बनावेत. सतरा तत्त्वांनी युक्त असे सूक्ष्म शरीर उपद्रवरहित होऊन स्वस्थ व समर्थ बनावे.