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आ ना॑सत्या त्रि॒भिरे॑काद॒शैरि॒ह दे॒वेभि॑र्यातं मधु॒पेय॑मश्विना। प्रायु॒स्तारि॑ष्टं॒ नी रपा॑सि मृक्षत॒ꣳ सेध॑तं॒ द्वेषो॒ भव॑तꣳ सचा॒भुवा॑ ॥४७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। ना॒स॒त्या॒। त्रि॒भिरिति॑ त्रि॒ऽभिः। ए॒का॒द॒शैः। इ॒ह। दे॒वेभिः॑। या॒त॒म्। म॒धु॒पेय॒मिति॑ मधु॒पेऽय॑म्। अ॒श्वि॒ना॒ ॥ प्र। आयुः॑। तारि॑ष्टम्। निः। रपा॑सि। मृ॒क्ष॒त॒म्। सेध॑तम्। द्वेषः॑। भव॑तम्। स॒चा॒भुवेति॑ सचा॒ऽभुवा॑ ॥४७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:47


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब कौन जगत् के हितैषी हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नासत्या) असत्य आचरण से रहित (अश्विना) राज्य और प्रजा के विद्वानो ! जैसे तुम (इह) इस जगत् में (त्रिभिः) एकादशैः) तेंतीस (देवेभिः) उत्तम पृथिवी आदि (आठ वसु, प्राणादि ग्यारह रुद्र, बारह महीनों तथा बिजुली और यज्ञ) तेंतीस देवताओं के साथ (मधुपेयम्) मधुर गुणों से युक्त पीने योग्य ओषधियों के रस को (आ, यातम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ वा उसके लिये आया करो। (रपांसि) पापों को (मृक्षतम्) शुद्ध किया करो। (द्वेषः) द्वेषादि दोषयुक्त प्राणियों का (निः, सेधतम्) खण्डन वा निवारण किया करो। (सचाभुवा) सत्य पुरुषार्थ के साथ कार्यों में संयुक्त (भवतम्) होओ और (आयुः) जीवन को (प्र, तारिष्टम्) अच्छे प्रकार बढ़ाओ, वैसे हम लोग होवें ॥४७ ॥
भावार्थभाषाः - वे ही लोग जगत् के हितैषी हैं, जो पृथिवी आदि सृष्टि की विद्या को जान के दूसरों को ग्रहण करावें, दोषों को दूर करें और अधिक काल जीवन के विधान का प्रचार किया करें ॥४७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ के जगद्धितैषिण इत्याह ॥

अन्वय:

(आ) समन्तात् (नासत्या) अविद्यमानाऽसत्याचरणौ (त्रिभिः) (एकादशैः) त्रयस्त्रिंशता (इह) (देवेभिः) दिव्यैः पृथिव्यादिभिः सह (यातम्) प्राप्नुतम् (मधुपेयम्) मधुरैर्गुणैर्युक्तं पातुं योग्यम् (अश्विना) विद्वांसौ राजप्रजाजनौ (प्र) (आयुः) जीवनम् (तारिष्टम्) वर्धयतम् (निः) नितराम् (रपांसि) पापानि (मृक्षतम्) मार्जयतम् (सेधतम्) गमयतम् (द्वेषः) द्वेषादिदोषयुक्तान् प्राणिनः (भवतम्) (सचाभुवा) यौ सत्येन पुरुषार्थेन सह भवतस्तौ ॥४७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे नासत्याऽश्विना ! यथा युवामिह त्रिभिरेकादशैर्देवेभिः सह मधुपेयमायातम्, रपांसि मृक्षतं द्वेषो निःषेधतं सचाभुवा भवतमायुः प्रतारिष्टम्, तथा वयमपि भवेम ॥४७ ॥
भावार्थभाषाः - त एव जगद्धितैषिणो ये पृथिव्यादिसृष्टिविद्यां विज्ञायाऽन्यान् ग्राहयेयुर्दोषान् दूरीकुर्युश्चिरंजीवनस्य विधानं च प्रचारयेयुः ॥४७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे पृथ्वी इत्यादी सृष्टीची विद्या जाणून दुसऱ्यांना शिकवितात ते जगाचे हितकर्ते असतात व सर्वांचे दोष दूर करून दीर्घकाळ जीवन जगण्याचा प्रसार करतात.