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इन्द्रा॑ग्नीऽअ॒पादि॒यं पूर्वागा॑त् प॒द्वती॑भ्यः। हि॒त्वी शिरो॑ जि॒ह्वया॒ वाव॑द॒च्चर॑त् त्रि॒ꣳशत् प॒दा न्य॑क्रमीत् ॥९३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रा॑ग्नी॒ऽइतीन्द्रा॑ग्नी। अ॒पात्। इ॒यम्। पूर्वा॑। आ। अ॒गा॒त्। प॒द्वती॑भ्यः॒ऽइति॑ प॒त्ऽवती॑भ्यः ॥ हि॒त्वी। शिरः। जि॒ह्वया॑। वाव॑दत्। चर॑त्। त्रि॒ꣳशत्। प॒दा। नि। अ॒क्र॒मी॒त् ॥९३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:93


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब उषा के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्राग्नी) अध्यापक उपदेशक लोगो ! जो (इयम्) यह (अपात्) विना पग की (पद्वतीभ्यः) बहुत पगोंवाली प्रजाओं से (पूर्वा) प्रथम उत्पन्न होनेवाली (आ, अगात्) आती है (शिरः) शिर को (हित्वी) छोड़ के अर्थात् विना शिर की हुई प्राणियों की (जिह्वया) वाणी से (वावदत्) शीघ्र बोलती अर्थात् कुक्कुट आदि के बोल से उषःकाल की प्रतीति होती है, इससे बोलना धर्म उषा में आरोपण किया जाता है (चरत्) विचरती है और (त्रिंशत्) तीस (पदा) प्राप्ति के साधन मुहूर्तों को (नि, अक्रमीत्) निरन्तर आक्रमण करती है, वह उषा प्रातः की वेला तुम लोगों को जाननी चाहिये ॥९३ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो वेगवाली, पाद, शिर आदि अवयवों से रहित, प्राणियों के जगने से पहिले होनेवाली, जागने का हेतु, प्राणियो के सुखों से शीघ्र बोलती हुई सी तीस मुहूर्त्त (साठ घड़ी) के अन्तर प्रत्येक स्थान को आक्रमण करती है, वह उषा निद्रा, आलस्य को छोड़ तुमको सुख के लिये सेवन करना चाहिये ॥९३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथोषर्विषयमाह ॥

अन्वय:

(इन्द्राग्नी) अध्यापकोपदेशकौ (अपात्) अविद्यमानौ पादौ यस्याः सा (इयम्) (पूर्वा) प्रथमा (आ) (अगात्) आगच्छति (पद्वतीभ्यः) बहवः पादा यासु प्रजासु ताभ्यः सुप्ताभ्यः प्रजाभ्यः (हित्वी) हित्वा त्यक्त्वा (शिरः) उत्तमाङ्गम् (जिह्वया) वाचा (वावदत्) भृशं वदति (चरत्) चरति (त्रिंशत्) एतत्सङ्ख्याकान् (पदा) प्राप्तिसाधकान् मुहूर्त्तान् (नि) (अक्रमीत्) क्रमते ॥९३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्राग्नी ! येयमपात् पद्वतीभ्यः पूर्वा आऽगाच्छिरो हित्वी प्राणिनां जिह्वया वावदच्चरत् त्रिंशत् पदान्यक्रमीत् सोषा युवाभ्यां विज्ञेया ॥९३ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! या वेगवती पादशिर आद्यवयवरहिता प्राणिप्रबोधात् पूर्वभावनी जागरणहेतुः प्राणिमुखैर्भृशं वदतीव त्रिंशन्मुहूर्त्तानन्तरं प्रतिप्रदेशमाक्रमीत् सोषा युष्माभिर्निद्रालस्ये विहाय सुखाय सेवनीया ॥९३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जी गतिमान आहे व मस्तक, पाय इत्यादी अवयवरहित असून, सर्व प्राणी जागृत होण्यापूर्वी कुक्कुट इत्यादींच्याद्वारे तिचे आगमन होते व तीस मुहूर्तानंतर (साठ घडी) प्रत्येक स्थान ती ताब्यात घेते अशा उषेचे सर्वांनी निद्रा व आळस सोडून स्वागत केले पाहिजे.