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आ तू न॑ऽइन्द्र वृत्रहन्न॒स्माक॑म॒र्द्धमा ग॑हि। म॒हान् म॒हीभि॑रू॒तिभिः॑ ॥६५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। वृ॒त्र॒ह॒न्निति॑ वृत्रऽहन्। अ॒स्माक॑म्। अ॒र्द्धम्। आ। ग॒हि॒। म॒हान्। म॒हीभिः॑। ऊ॒तिभि॒रित्यू॒तिऽभिः॑ ॥६५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:65


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृत्रहन्) शत्रुओं के विनाशक (इन्द्र) उत्तम ऐश्वर्यवाले राजन् ! आप (अस्माकम्) हम लोगों की (अर्द्धम्) वृद्धि उन्नति को (आ, गहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये और (महान्) अत्यन्त पूजनीय हुए (महीभिः) बड़ी (ऊतिभिः) रक्षादि क्रियाओं से (नः) हमको (तु, आ, दधनत्) शीघ्र अच्छे प्रकार पुष्ट कीजिये ॥६५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (दधनत्) इस पद की अनुवृति आती है। हे राजन् ! जैसे आप हमारे रक्षक और वर्द्धक हैं, वैसे हम लोग भी आपको बढ़ावें, सब हम लोग प्रीति से मिल के दुष्टों को निवृत्त करके श्रेष्ठों को धनाढ्य करें ॥६५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(आ) समन्तात् (तु) क्षिप्रम्। अत्र ऋचि तुनु० [अ०६.३.१३३] इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् (वृत्रहन्) शत्रूणां विनाशक (अस्माकम्) (अर्द्धम्) वर्धनम् (आ) (गहि) प्राप्नुहि (महान्) पूजनीयतमः (महीभिः) महतीभिः (ऊतिभिः) रक्षादिभिः ॥६५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वृत्रहन्निन्द्र ! त्वमस्माकमर्द्धमागहि महान् सन्महीभिरूतिभिर्नोऽस्मान् त्वाऽऽदधनत् ॥६५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र पूर्वस्मान्मन्त्राद् दधनदिति पदमनुवर्तते। हे राजन् ! यथा भवानस्माकं रक्षकोऽस्ति, तथा वयमपि भवन्तं वर्द्धयेम्। सर्वे वयं प्रीत्या मिलित्वा दुष्टान् निवार्य्य श्रेष्ठान् धनाढ्यान् कुर्य्याम ॥६५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्राच्या पूर्वीच्या मंत्रातून (दधनत्) या पदाची अनुवृत्ती झालेली आहे. हे राजा ! तू जसा आमचा रक्षक व वर्धक आहेस तसे आम्ही लोकांनीही तुला उन्नत करावे. आम्ही सर्वांनी मिळून मिसळून वागावे. दुष्टांचे निर्दालन करावे व श्रेष्ठांना उन्नत करावे.