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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र मे कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे मैं (धियम्) बुद्धि तथा (घृताचीम्) शीतलतारूप जल को प्राप्त होनेवाली रात्रि को (साधन्ता) सिद्ध करते हुए (पूतदक्षम्) शुद्ध बलयुक्त (मित्रम्) मित्र (च) और (रिशादसम्) दुष्ट हिंसक को मारनेहारे (वरुणम्) धर्मात्मा जन को (हुवे) स्वीकार करता हूँ, वैसे इनको तुम लोग भी स्वीकार करो ॥५७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्राण और उदान बुद्धि और रात्रि को सिद्ध करते वैसे विद्वान् लोग सब उत्तम साधनों का ग्रहण कर कार्य्यों को सिद्ध करें ॥५७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(मित्रम्) सुहृदम् (हुवे) स्वीकरोमि (पूतदक्षम्) पवित्रबलम् (वरुणम्) धार्मिकम् (च) (रिशादसम्) हिंसकानां हिंसकम् (धियम्) प्रज्ञाम् (घृताचीम्) या घृतमुदकमञ्चति तां रात्रिम्। घृताचीति रात्रिनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.७) (साधन्ता) साधन्तौ ॥५७ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथाऽहं धियं घृताचीञ्च साधन्ता पूतदक्षं मित्रं रिशादसं वरुणञ्च हुवे तथैतौ यूयमपि स्वीकुरुत ॥५७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्राणोदानौ प्रज्ञां रात्रिञ्च साध्नुतस्तथा विद्वांसः सर्वाण्युत्तमानि साधनानि गृहीत्वा कार्यसिद्धिं कुर्वन्तु ॥५७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे प्राण व उदान यांच्यामुळे बुद्धी व रात्र यांचे अस्तित्व सिद्ध होते तसे विद्वान लोकांनी उत्तम साधनांनीयुक्त होऊन कार्य सिद्ध करावे.