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अग्न॒ऽइन्द्र॒ वरु॑ण॒ मित्र॒ देवाः॒ शर्द्धः॒ प्र य॑न्त॒ मारु॑तो॒त वि॑ष्णो। उ॒भा नास॑त्या रु॒द्रोऽअ॑ध॒ ग्नाः पू॒षा भगः॒ सर॑स्वती जुषन्त ॥४८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्ने॑। इन्द्र॑। वरु॑ण। मित्र॑। देवाः॑। शर्द्धः॑। प्र। य॒न्त॒। मारु॑त। उ॒त। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो ॥ उ॒भा। नास॑त्या। रु॒द्रः। अध॑। ग्नाः। पू॒षा। भगः॑। सर॑स्वती। जु॒ष॒न्त॒ ॥४८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:48


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्याप्रकाशक (इन्द्र) महान् ऐश्वर्यवाले (वरुण) अति श्रेष्ठ (मित्र) मित्र (मारुत) मनुष्यों में वर्त्तमान जन (उत) और (विष्णो) व्यापनशील (देवाः) विद्वान् तुम लोगो ! हमारे लिये (शर्द्धः) शरीर और आत्मा के बल को (प्र, यन्त) देओ (उभा) दोनों (नासत्या) सत्यस्वरूप अध्यापक और उपदेशक (रुद्रः) दुष्टों को रुलानेहारा (ग्नाः) अच्छी शिक्षित वाणी (पूषा) पोषक (भगः) ऐश्वर्यवान् (अध) और इसके अनन्तर (सरस्वती) प्रशस्त ज्ञानवाली स्त्री, ये सब हमारा (जुषन्त) सेवन करें ॥४८ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों के सेवन से विद्या और उत्तम शिक्षा को ग्रहण कर दूसरों को भी विद्वान् करें ॥४८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अग्ने) विद्याप्रकाशक (इन्द्र) महैश्वर्ययुक्त (वरुण) अतिश्रेष्ठ (मित्र) सुहृत् (देवाः) विद्वांसः (शर्द्धः) शरीरात्मबलम् (प्र) (यन्त) प्रयच्छत। अत्र शपो लुक्। (मारुत) मनुष्याणां मध्ये वर्त्तमान (उत) अपि (विष्णो) व्यापनशील (उभा) द्वौ (नासत्या) अविद्यमानासत्यस्वरूपावध्यापकोपदेशकौ (रुद्रः) दुष्टानां रोदयिता (अध) अथ (ग्नाः) सुशिक्षिता वाचः (पूषा) पोषकः (भगः) ऐश्वर्यवान् (सरस्वती) प्रशस्तज्ञानयुक्ता स्त्री (जुषन्त) सेवन्ताम्। अत्राडभावः ॥४८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने इन्द्र वरुण मित्र मारुतोत विष्णो ! देवा यूयमस्मभ्यं शर्द्धः प्रयन्त। उभा नासत्या रुद्रो ग्नाः पूषा भगोऽध सरस्वती चाऽस्माञ्जुषन्त ॥४८ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्विदुषां सेवनेन विद्यासुशिक्षे गृहीत्वाऽन्येऽपि विद्वांसः कार्य्याः ॥४८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी विद्वानांच्या संगतीने विद्या व उत्तम शिक्षण घ्यावे आणि इतरांनाही विद्वान करावे.