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आ तत्त॑ऽइन्द्रा॒यवः॑ पनन्ता॒भि यऽऊ॒र्वं गोम॑न्तं॒ तितृ॑त्सान्। स॒कृ॒त्स्वं᳕ ये पु॑रुपु॒त्रां म॒ही स॒हस्र॑धारां बृह॒तीं दुदु॑क्षन् ॥२८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। तत्। ते॒। इ॒न्द्र॒। आ॒यवः॑। प॒न॒न्त॒। अ॒भि। ये। ऊ॒र्वम्। गोम॑न्त॒मिति॒ गोऽम॑न्तम्। तितृ॑त्सान् ॥ स॒कृ॒त्स्व᳕मिति॑ सकृ॒त्ऽस्व᳕म्। ये। पु॒रु॒पु॒त्रामिति॑ पुरुपु॒त्राम्। म॒हीम्। स॒हस्र॑धारा॒मिति॑ स॒हस्र॑ऽधाराम्। बृ॒ह॒तीम्। दुदु॑क्षन्। दुधु॑क्ष॒न्निति॒ दुधु॑क्षन् ॥२८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:28


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) राजन् ! (ये) जो (आयवः) सत्य को प्राप्त होनेवाले प्रजा जन (सकृत्स्वम्) एक बार उत्पन्न करनेवाली (पुरुपुत्राम्) बहुत अन्नादि व्यक्तिवाले पुत्रों से युक्त (सहस्रधाराम्) असंख्य सुवर्णादि धातु जिसमें धारारूप हों वा असंख्य प्राणिमात्र को धारण करनेहारी (बृहतीम्) विस्तारयुक्त (महीम्) बड़ी भूमि को (दुदुक्षन्) दोहना चाहें अर्थात् उससे इच्छापूर्ति किया चाहें (ये) जो मनुष्य (गोमन्तम्) खोटे इन्द्रियोंवाले लम्पट (ऊर्वम्) हिंसक जन को (अभि, तितृत्सान्) सम्मुख होकर मारने की इच्छा करें और जो (ते) आपके (तत्) उस राजकर्म की (आ, पनन्त) प्रशंसा करें, उनकी आप उन्नति किया कीजिये ॥२८ ॥
भावार्थभाषाः - जो लोग राजभक्त दुष्टहिंसक एक बार में बहुत फल-फूल देने और सबको धारणकरनेवाली भूमि के दुहने को समर्थ हों, वे राजकार्य करने के योग्य होवें ॥२८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(आ) (तत्) राजकर्म (ते) तव (इन्द्र) राजन् ! (आयवः) ये सत्यं यन्ति ते मनुष्याः प्रजाः। आयव इति मनुष्यनामसु पठितम् ॥ (निघं०२.३) (पनन्त) प्रशंसेयुः (अभि) आभिमुख्ये (ते) (ऊर्वम्) हिंसकम् (गोमन्तम्) दुष्टा गाव इन्द्रियाणि यस्य तम् (तितृत्सान्) तर्दितुं हिंसितुमिच्छेयुः। लेट्। (सकृत्स्वम्) या सकृदेकवारं सूते ताम् (ये) (पुरुपुत्राम्) बहवोऽन्नादिव्यक्तिमन्तः पुत्रा यस्यास्ताम् (महीम्) महतीं भूमिम् (सहस्रधाराम्) सहस्रं धारा हिरण्यादयो यस्यान्तां यद्वा या सहस्रमसङ्ख्यातं प्राणिजातं धरति (बृहतीम्) विस्तीर्णाम् (दुदुक्षन्) दोग्धुमिच्छेयुः। अत्र वर्णव्यत्ययेन धस्य दः ॥२८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! य आयवः सकृत्स्वं पुरुपुत्रां सहस्रधारां बृहतीं महीं दुदुक्षन्, ये गोमन्तमूर्वमभितितृत्सान् ये च ते तदापनन्त तान् त्वं सततमुन्नय ॥२८ ॥
भावार्थभाषाः - ये राजभक्ता दुष्टहिंसका एकवारे बहुफलपुष्पप्रदां सर्वधारिकां भूमिं दोग्धुं समर्थास्स्युस्ते राजकार्य्याणि कर्त्तुमर्हेयुः ॥२८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे लोक दुष्ट व हिंसक लोकांना मारतात व सर्वांना धारण करणाऱ्या भूमीपासून फळे, फुले, अन्न, सुवर्ण इत्यादी प्राप्त करतात तेच लोक योग्य राज्यकारभार करू शकतात.