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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (धूमकेतवः) जिनका जतानेवाला धूम ही पताका के तुल्य है (वातजूताः) वायु से तेज को प्राप्त हुए ((हरयः) हरणशील (अग्नयः) पावक (वृथक्) नाना प्रकार से (द्यवि) प्रकाश के निमित्त (उप, यतन्ते) यत्न करते हैं, उनको कार्य्यसिद्धि के अर्थ उपयोग में लाओ ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिनका धूम ज्ञान कराने और वायु जलानेवाला है और जिनमें हरणशीलता वर्त्तमान है, वे अग्नि हैं, ऐसा जानो ॥२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(हरयः) हरणशीलाः (धूमकेतवः) केतुरिव धूमो ज्ञापको येषान्ते (वातजूताः) वायुना प्राप्ततेजस्काः (उप) (द्यवि) प्रकाशे (यतन्ते) (वृथक्) पृथक्। वर्णव्यत्ययः (अग्नयः) पावकाः ॥२ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! ये धूमकेतवो वातजूता हरयोऽग्नयो वृथग् द्यवि उप यतन्ते, तान् कार्य्यसिद्धये संप्रयुङ्ग्ध्वम् ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! येषां धूमो विज्ञापको वायुः प्रदीपको हरणशीलता च येषु वर्त्तते, तेऽग्नयः सन्तीति विजानीत ॥२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! धूर म्हणजे ज्याच्या पताकाच आहेत व वायूमुळे जो गतिमान असून, ज्वलनशील आहे, तसेच नाशही करणरा आहे असा तो अग्नीच असतो हे जाणा.