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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य वर्त्तमान तेजस्वी विद्वन् ! आप जैसे सूर्य (विश्वेभिः) सब (धामभिः) धामों से (इन्द्रेण) धन के धारक (वायुना) बलवान् पवन के साथ (सोम्यम्) उत्तम ओषधियों में हुए (मधु) मीठे आदि गुणवाले रस को पीता है, वैसे (मित्रस्य) मित्र के सब स्थानों से सुन्दर ओषधियों के रस को (पिब) पीजिये ॥१० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे सूर्य सब पदार्थों से रस को खींच के वर्षा करके सब पदार्थों को पुष्ट करता है, वैसे विद्या और विनय से सब को पुष्ट करो ॥१० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(विश्वेभिः) अखिलैः (सोम्यम्) सोमेष्वोषधीषु भवम् (मधु) मधुरादिगुणयुक्तं रसम् (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान विद्वन् ! (इन्द्रेण) सर्वेषां धारकेण (वायुना) बलवता पवनेन (पिब)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अ०६.३.१३५] इति दीर्घः (मित्रस्य) सुहृदः (धामभिः) स्थानैः ॥१० ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! त्वं यथा सूर्य्यो विश्वेभिर्धामभिरिन्द्रेण वायुना सह सोम्यं मधु पिबति, तथा मित्रस्य विश्वेभिर्धामभिः सोम्यं मधु रसं त्वं पिब ॥१० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यूयं यथा सूर्य्यः सर्वस्माद्रसमाकृष्य वर्षित्वा सर्वान् पदार्थान् पुष्णाति तथा विद्याविनयाभ्यां सर्वान् पुष्णीत ॥१० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! सूर्य जसा सर्व पदार्थांचा रस ओढून घेतो व पर्जन्याच्या रूपाने सर्व पदार्थांना बलवान करतो तसे विद्या व विनय यांनी तुम्ही सर्वांना बलवान करा.