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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस (वसोः) सुखों के निवास के हेतु (चित्रस्य) आश्चर्यस्वरूप (राधसः) धन का (विभक्तारम्) विभाग करने हारे (सवितारम्) सब के उत्पादक (नृचक्षसम्) सब मनुष्यों के अन्तर्यामि स्वरूप से सब कामों के देखनेहारे परमात्मा की हम लोग (हवामहे) प्रशंसा करें, उसकी तुम लोग भी प्रशंसा करो ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जैसे परमेश्वर अपने-अपने कर्मों के अनुकूल सब जीवों को फल देता है, वैसे आप भी देओ। जैसे जगदीश्वर जैसा जिस का पाप व पुण्यरूप जितना कर्म है, उतना वैसा फल उस के लिए देता, वैसे आप भी जिसका जैसा वस्तु वा जितना कर्म है, उस को वैसा वा उतना फल दीजिए। जैसे परमेश्वर पक्षपात को छोड़ के सब जीवों में वर्त्तता है, वैसे आप भी हूजिए ॥४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(विभक्तारम्) विभाजयितारम् (हवामहे) प्रशंसेम (वसोः) सुखानां वासहेतोः (चित्रस्य) अद्भुतस्य (राधसः) धनस्य (सवितारम्) जनयितारम् (नृचक्षसम्) नृणां द्रष्टारं परमात्मानम् ॥४ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यं वसोश्चित्रस्य राधसो विभक्तारं सवितारं नृचक्षसं वयं हवामहे, तं यूयमप्याह्वयत ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! यथा परमेश्वरः स्वस्वकर्मानुकूलं सर्वजीवेभ्यः फलं ददाति, तथा भवानपि ददातु। यथा जगदीश्वरो यादृशं यस्य कर्म पापं पुण्यं यावच्चाऽस्ति, तावदेव तादृशं तस्मै ददाति, तथा त्वमपि। यस्य यावद्वस्तु यादृशं कर्म च तावत्तादृशं च तस्मै देहि। यथा परमेश्वरः पक्षपातं विहाय सर्वेषु जीवेषु वर्त्तते, तथा त्वमपि भव ॥४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! परमेश्वर जसा सर्व जीवांना आपापल्या कर्मानुसार फळ देतो तसे तूही दे. ज्याचे पाप किंवा पुण्य जितके असेल तितके परमेश्वर त्याला फळ देते एवढेच नव्हे, तर ज्याची वस्तूू किंवा कर्म जेवढे असेल तेवढेच तो त्याला देतो, तसेच तूही कर. परमेश्वर जसा भेदभाव न करता सर्व जीवांशी वागतो तसे तूही वाग.