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अ॒यम॒ग्निर्गृ॒हप॑ति॒र्गार्ह॑पत्यः प्र॒जाया॑ वसु॒वित्त॑मः। अग्ने॑ गृहपते॒ऽभि द्यु॒म्नम॒भि सह॒ऽआय॑च्छस्व ॥३९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। अ॒ग्निः। गृ॒हप॑ति॒रिति॑ गृ॒हऽप॑तिः। गार्ह॑पत्य॒ इति॒ गार्ह॑ऽपत्यः॑। प्र॒जाया॒ इति॑ प्र॒जायाः॑। व॒सु॒वित्त॑म॒ इति॑ वसु॒वित्ऽत॑मः। अग्ने॑। गृ॒ह॒प॒त॒ इति॑ गृहऽपते। अ॒भि। द्यु॒म्नम्। अ॒भि। सहः॑। आ। य॒च्छ॒स्व॒ ॥३९॥

यजुर्वेद » अध्याय:3» मन्त्र:39


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (गृहपते) घर के पालन करनेवाले (अग्ने) परमेश्वर ! जो (अयम्) यह (गृहपतिः) स्थान विशेषों के पालन हेतु (गार्हपत्यः) घर के पालन करनेवालों के साथ संयुक्त (प्रजाया वसुवित्तमः) प्रजा के लिये सब प्रकार धन प्राप्त करानेवाले हैं, सो आप जिस कारण (द्युम्नम्) सुख और प्रकाश से युक्त धन को (अभ्यायच्छस्व) अच्छी प्रकार दीजिये तथा (सहः) उत्तम बल, पराक्रम (अभ्यायच्छस्व) अच्छी प्रकार दीजिये ॥१॥३९॥ जिस कारण जो (गृहपतिः) उत्तम स्थानों के पालन का हेतु (प्रजायाः) पुत्र, मित्र, स्त्री और भृत्य आदि प्रजा को (वसुवित्तमः) द्रव्यादि को प्राप्त कराने वा (गार्हपत्यः) गृहों के पालन करनेवालों के साथ संयुक्त (अयम्) यह (अग्ने) बिजुली सूर्य वा प्रत्यक्षरूप से अग्नि है, इससे वह (गृहपते) घरों का पालन करनेवाला (अग्ने) अग्नि हम लोगों के लिये (अभिद्युम्नम्) सब ओर से उत्तम उत्तम धन वा (सहः) उत्तम-उत्तम बलों को (अभ्यायच्छस्व) सब प्रकार से विस्तारयुक्त करता है ॥२॥ ॥३९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। गृहस्थ लोग जब ईश्वर की उपासना और उसकी आज्ञा में प्रवृत्त होके कार्य्य की सिद्धि के लिये इस अग्नि को संयुक्त करते हैं, तब वह अग्नि अनेक प्रकार के धन और बलों को विस्तारयुक्त करता है, क्योंकि यह प्रजा में पदार्थों की प्राप्ति के लिये अत्यन्त सिद्धि करने हारा है ॥३९॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरभौतिकावग्नी उपदिश्येते ॥

अन्वय:

(अयम्) प्रत्यक्षो वक्ष्यमाणः (अग्निः) ईश्वरो विद्युत्सूर्यो ज्वालामयो भौतिको वा (गृहपतिः) गृहाणां स्थानविशेषाणां पतिः पालनहेतुः (गार्हपत्यः) गृहपतिना संयुक्तः। अत्र गृहपतिना संयुक्ते ञ्यः (अष्टा०४.४.९०) अनेन ञ्यः प्रत्ययः। इदं पदं महीधरादिभिर्व्याकरणज्ञानविरहत्वात्, गृहस्य पतिः पालक इत्यशुद्धं व्याख्यातम्। (प्रजायाः) विद्यमानायाः (वसुवित्तमः) यो वसूनि द्रव्याणि वेदयति प्रापयति सोऽतिशयितः (अग्ने) अयमग्निः (गृहपते) गृहाभिरक्षकेश्वर ! गृहाणां पालयिता वा (अभि) अभितः (द्युम्नम्) सुखप्रकाशयुक्तं धनम्। द्युम्नमिति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (अभि) आभिमुख्ये (सहः) उदकं बलं वा। सह इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) बलनामसु च। (निघं०२.९) (आ) समन्तात् क्रियायोगे (यच्छस्व) सर्वतो देहि आयच्छति विस्तारयति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः सिद्धिश्च पूर्ववत्। अयं मन्त्रः (शत०२.४.१.९-११) व्याख्यातः ॥३९॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे गृहपतेऽग्ने परमात्मन् ! योऽयं भवान् गृहपतिर्गार्हपत्यः प्रजाया वसुवित्तमोऽग्निरस्ति, तस्मात् त्वमस्मदर्थं द्युम्नमभ्यायच्छस्व सहश्चाभ्यायच्छस्वेत्येकः ॥ यस्माद् गृहपतिः प्रजाया वसुवित्तमो गार्हपत्योऽयमग्निरस्ति तस्मात् सोऽभिद्युम्नं सहश्चाभ्यायच्छति आभिमुख्येन समन्तात् विस्तारयतीति द्वितीयः ॥३९॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। गृहस्थैर्यदेश्वरमुपास्यैतस्याज्ञायां वर्त्तित्वायमग्निः कार्यसिद्धये संयोज्यते, तदानेकविधे धनबले अत्यन्तं विस्तारयति। कुतः? प्रजाया मध्येऽस्याग्नेः पदार्थप्राप्तये साधकतमत्वादिति ॥३९॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. गृहस्थ जेव्हा ईश्वराची उपासना करतात तेव्हा त्याच्या आज्ञेत राहून कार्य सिद्ध व्हावे यासाठी अग्नीचा प्रयोग करतात तेव्हा अग्नी अनेक प्रकाराने त्यांचे धन व बल वाढवितो. कारण या अग्नीमुळेच प्रजेला पदार्थाची प्राप्ती होते.