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घृ॒तेना॒ञ्जन्त्सं प॒थो दे॑व॒याना॑न् प्रजा॒नन् वा॒ज्यप्ये॑तु दे॒वान्। अनु॑ त्वा सप्ते प्र॒दिशः॑ सचन्ता स्व॒धाम॒स्मै यज॑मानाय धेहि ॥२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

घृ॒तेन॑। अ॒ञ्जन्। सम्। प॒थः। दे॒व॒याना॒निति॑ देव॒ऽयाना॑न्। प्र॒जा॒नन्निति॑ प्रऽजा॒नन्। वा॒जी। अपि॑। ए॒तु॒। दे॒वान्। अनु॑। त्वा॒। स॒प्ते॒। प्र॒दिश॒ इति॑ प्र॒ऽदिशः॑। स॒च॒न्ता॒म्। स्व॒धाम्। अ॒स्मै। यज॑मानाय। धे॒हि॒ ॥२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:29» मन्त्र:2


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सप्ते) घोड़े के समान वेग से वर्त्तमान विद्वान् जन ! जैसे (वाजी, अपि) वेगवान् भी अग्नि (घृतेन) घी वा जल से (अञ्जन्) प्रगट हुआ (देवयानान्) विद्वान् लोग जिन में चलते हैं, उन (पथः) मार्गों को (सम्, एतु) सम्यक् प्राप्त होवे, उसको (प्रजानन्) अच्छे प्रकार जानते हुए आप (देवान्) विद्वानों को (एहि) प्राप्त हूजिये, जिससे (त्वा) आपके (अनु) अनुकूल (प्रदिशः) सब दिशा-विदिशाओं को (सचन्ताम्) सम्बन्ध करें। आप (अस्मै) इस (यजमानाय) यज्ञ करनेवाले पुरुष के लिए (स्वधाम्) अन्न को (धेहि) धारण कीजिए ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष अग्नि और जलादि से युक्त किये भाप से चलनेवाले यानों से शीघ्र मार्गों में जा आ के सब दिशाओं में भ्रमण करें, वे वहाँ-वहाँ सर्वत्र पुष्कल अन्नादि को प्राप्त कर बुद्धि से कार्यों को सिद्ध कर सकते हैं ॥२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(घृतेन) उदकेनान्नेन वा (अञ्जन्) प्रकटीभवन् (सम्) सम्यक् (पथः) मार्गान् (देवयानान्) देवा विद्वांसो यान्ति गच्छन्ति येषु तान् (प्रजानन्) प्रकर्षेण बुध्यमानः (वाजी) वेगवान् (अपि) (एतु) प्राप्नोतु (देवान्) विदुषः (अनु) (त्वा) त्वाम् (सप्ते) अश्व इव वेगकारक (प्रदिशः) सर्वा दिशः (सचन्ताम्) समवयन्तु (स्वधाम्) अन्नम् (अस्मै) (यजमानाय) (धेहि) ॥२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सप्तेऽश्व इव वर्त्तमान विद्वन् ! यथा वाज्यप्यग्निर्घृतेनाञ्जन् देवयानान् पथः समेतु तं प्रजानन् संस्त्वं देवानेहि, येन त्वाऽनुप्रदिशः सचन्तां त्वमस्मै यजमानाय स्वधां धेहि ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येऽग्निजलादिप्रयुक्तैर्वाष्पयानैः सद्यो मार्गान् गत्वाऽऽगत्य सर्वासु दिक्षु भ्रमेयुस्ते तत्र पुष्कलान्यन्नादीनि संप्राप्य प्रज्ञया कार्याणि साद्धुं शक्नुवन्ति ॥२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे पुरुष अग्नी व जल यांनी युक्त असलेल्या व वाफेने चालणाऱ्या यानांनी शीघ्र जाणे-येणे करून दशदिशांमध्ये भ्रमण करतात. ते पुष्कळ अन्न प्राप्त करून बुद्धिपूर्वक कार्य सिद्ध करू शकतात.