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होता॑ यक्ष॒त् पेश॑स्वतीस्ति॒स्रो दे॒वीर्हि॑र॒ण्ययी॒र्भार॑तीर्बृह॒तीर्म॒हीः पति॒मिन्द्रं॑ वयो॒धस॑म्। वि॒राजं॒ छन्द॑ऽइ॒हेन्द्रि॒यं धे॒नुं गां न वयो॒ दध॒द् व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥३१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। पेश॑स्वतीः। ति॒स्रः। दे॒वीः। हि॒र॒ण्ययीः॑। भार॑तीः। बृह॒तीः। म॒हीः। पति॑म्। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। वि॒राज॒मिति॑ वि॒ऽराज॑म्। छन्दः॑। इ॒ह। इ॒न्द्रि॒यम्। धे॒नुम्। गाम्। न। वयः॑। दध॑त्। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:31


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) यज्ञ करनेहारे जन ! जैसे (इह) इस जगत में जो (होता) शुभ गुणों का ग्रहीता जन (तिस्रः) तीन (हिरण्ययीः) सुवर्ण के तुल्य प्रिय (पेशस्वतीः) सुन्दर रूपोंवाली (भारतीः) धारण करने हारी (बृहतीः) बड़ी, गम्भीर (महीः) महान् पुरुषों ने ग्रहण की (देवीः) दानशील स्त्रियों, तीन प्रकार की वाणियों, (वयोधसम्) बहुत अवस्थावाले (पतिम्) रक्षक (इन्द्रम्) राजा, (विराजम्) विविध पदार्थों के प्रकाशक (छन्दः) विराट् छन्द, (वयः) कामना के योग्य वस्तु और (इन्द्रियम्) जीवों ने सेवन किये सुख को (यक्षत्) प्राप्त होता है, वह (धेनुम्) दूध देनेहारी (गाम्) गौ के (न) समान हम को (व्यन्तु) प्राप्त हो, वैसे इन सब को (दधत्) धारण करता हुआ (आज्यस्य) प्राप्त होने योग्य विज्ञान के फल को (यज) प्राप्त हूजिये ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य कर्म, उपासना और विज्ञान को जाननेवाली वाणी को जानते हैं, वे बड़ी कीर्त्ति को प्राप्त होते हैं। जैसे धेनु बछड़ों को तृप्त करती है, वैसे विद्वान् लोग मूर्ख बालबुद्धि लोगों को तृप्त करते हैं ॥३१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) (यक्षत्) (पेशस्वतीः) प्रशस्तसुरूपवतीः (तिस्रः) त्रित्वसंख्याः (देवीः) दात्र्यः (हिरण्ययीः) हिरण्यप्रकाराः (भारतीः) धारिकाः (बृहतीः) (महीः) महत्संयुक्ताः (पतिम्) पालकम् (इन्द्रम्) राजानम् (वयोधसम्) चिरायुर्धारकम् (विराजम्) विविधानां पदार्थानां प्रकाशकम् (छन्दः) बलकरम् (इह) (इन्द्रियम्) इन्द्रैर्जीवैर्जुष्टं सुखम् (धेनुम्) दुग्धदात्रीम् (गाम्) (न) इव (वयः) कमनीयम् (दधत्) (व्यन्तु) प्राप्नुवन्तु (आज्यस्य) (होतः) (यज) ॥३१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतर्यथेह यो होता तिस्रो हिरण्ययीः पेशस्वतीर्भारतीर्बृहतीर्महीर्देवीस्त्रिविधा वाचो वयोधसं पतिमिन्द्रं विराजं छन्द वय इन्द्रियं च यक्षत्, स धेनुं गां न व्यन्तु, तथैतानि दधत् सन्नाज्यस्य फलं यज ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्याः कर्मोपासनाज्ञानविज्ञापिकां वाणीं विजानन्ति, ते महतीं कीर्त्तिं प्राप्नुवन्ति, यथा धेनुर्वत्सान् तर्पयति तथेह विद्धांसोऽज्ञान् बालकान् तर्पयन्ति ॥३१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे कर्म, उपासना व (वि) ज्ञानयुक्त वाणीचे महत्त्व जाणतात त्यांना कीर्ती प्राप्त होते. जशी गाय वासरांना तृप्त करते तसे विद्वान लोक मूर्ख बालबुद्धी लोकांना तृप्त करतात.