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होता॑ यक्षत्समिधा॒नं म॒हद्यशः॒ सुस॑मिद्धं॒ वरे॑ण्यम॒ग्निमिन्द्रं॑ वयो॒धस॑म्। गा॒य॒त्रीं छन्द॑ऽइन्द्रि॒यं त्र्यविं॒ गां वयो॒ दध॒द् वेत्वाज्य॑स्य होत॒र्यज॑ ॥२४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। स॒मि॒धा॒नमिति॑ सम्ऽइधा॒नम्। म॒हत्। यशः॑। सुस॑मिद्ध॒मिति॒ सुऽस॑मिद्धम्। वरे॑ण्यम्। अ॒ग्निम्। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। गा॒य॒त्रीम्। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। त्र्यवि॒मिति॑ त्रि॒ऽअवि॑म्। गाम्। वयः॑। दध॑त्। वेतु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥२४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:24


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) विद्यादि का ग्रहण करने हारे जन ! आप जैसे (होता) दाता पुरुष (अग्निम्) अग्नि के तुल्य (समिधानम्) सम्यक् प्रकाशमान (सुसमिद्धम्) सुन्दर शोभायमान (वरेण्यम्) ग्रहण करने योग्य (महत्) बड़ा (यशः) कीर्त्ति (वयोधसम्) अभीष्ट अवस्था के धारक (इन्द्रम्) उत्तम ऐश्वर्य करनेवाले योग (गायत्रीम्) सत्य अर्थों का प्रकाश करनेवाली गायत्री (छन्दः) स्वतन्त्रता (इन्द्रियम्) धन वा श्रोत्रादि इन्द्रियों (त्र्यविम्) तीन प्रकार से रक्षा करनेवाली (गाम्) पृथिवी और (वयः) जीवन को (दधत्) धारण करता हुआ (यक्षत्) सङ्ग करे और (आज्यस्य) विज्ञान के रस को (वेतु) प्राप्त होवे, वैसे आप भी (यज) समागम कीजिये ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष सत् विद्या आदि पदार्थों का दान करते हैं, वे अतुल कीर्ति को पाकर आप सुखी होते और दूसरों को सुखी करते हैं ॥२४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) दाता (यक्षत्) सङ्गच्छेत् (समिधानम्) सम्यक् प्रकाशमानम् (महत्) (यशः) कीर्त्तिम् (सुसमिद्धम्) सुष्ठु प्रदीप्यमानम् (वरेण्यम्) वर्त्तुमर्हम् (अग्निम्) पावकम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यकारकम् (वयोधसम्) कमनीयायुर्धारकम् (गायत्रीम्) सदर्थान् प्रकाशयन्तीम् (छन्दः) स्वातन्त्र्यम् (इन्द्रियम्) धनं श्रोत्रादि वा (त्र्यविम्) या त्रिधाऽवति ताम् (गाम्) पृथिवीम् (वयः) जीवनम् (दधत्) धरन् (वेतु) (आज्यस्य) (होतः) (यज) ॥२४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतस्त्वं यथा होताग्निमिव समिधानं सुसमिद्धं वरेण्यं महद्यशो वयोधसमिन्द्रं गायत्रीं छन्द इन्द्रियं त्र्यविं गां वयश्च दधत् सन् यक्षदाज्यस्य वेतु तथा यज ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सद्विद्यादिपदार्थानां दानं कुर्वन्ति, तेऽतुलां कीर्त्तिं प्राप्य सुखयन्ति ॥२४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे पुरुष सद्विद्येचे दान करतात ते अखंड कीर्ती प्राप्त करून स्वतः सुखी होतात व इतरांना सुखी करतात.