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दे॒वो दे॒वैर्वन॒स्पति॒र्हिर॑ण्यपर्णो॒ मधु॑शाखः सुपिप्प॒लो दे॒वमिन्द्र॑मवर्धयत्। दिव॒मग्रे॑णास्पृक्ष॒दान्तरि॑क्षं पृथि॒वीम॑दृꣳहीद्वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वेतु॒ यज॑ ॥२० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वः। दे॒वैः। वन॒स्पतिः॑। हिर॑ण्यपर्ण॒ इति॒ हिर॑ण्यऽपर्णः। मधु॑शाख इति॑ मधु॑ऽशाखः। सु॒पि॒प्प॒ल इति॑ सुऽपिप्प॒लः। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒य॒त्। दिव॑म्। अग्रे॑ण। अ॒स्पृ॒क्ष॒त्। आ। अ॒न्तरि॑क्षम्। पृ॒थि॒वीम्। अ॒दृ॒ꣳही॒त्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒ऽधेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वे॒तु॒। यज॑ ॥२० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:20


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् लोग क्या करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (देवैः) दिव्य प्रकाशमान गुणों के साथ वर्त्तमान (हिरण्यपर्णः) सुवर्ण के तुल्य चिलकते हुए पत्तोंवाला (मधुशाखः) मीठी डालियों से युक्त (सुपिप्पलः) सुन्दर फलोंवाला (देवः) उत्तम गुणों का दाता (वनस्पतिः) सूर्य की किरणों में जल पहुँचा कर उष्णता की शान्ति से किरणों का रक्षक वनस्पति (देवम्) उत्तम गुणोंवाले (इन्द्रम्) दरिद्रता के नाशक मेघ को (अवर्धयत्) बढ़ावे, (अग्रेण) अग्रगामी होने से (दिवम्) प्रकाश को (अस्पृक्षत्) चाहे, (अन्तरिक्षम्) अवकाश, उसमें स्थित लोकों और (पृथिवीम्) भूमि को (आ, अदृंहीत्) अच्छे प्रकार धारण करे (वसुधेयस्य) संसार के (वसुवने) धनदाता जीव के लिए (वेतु) उत्पन्न होवे, वैसे आप (यज) यज्ञ कीजिए ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वनस्पति ऊपर जल चढ़ाकर मेघ को बढ़ाते और सूर्य अन्य लोकों को धारण करता है, वैसे विद्वान् लोग विद्या को चाहनेवाले विद्यार्थी को बढ़ाते हैं ॥२० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किं कुर्वन्तीत्याह ॥

अन्वय:

(देवः) दिव्यगुणप्रदः (देवैः) देदीप्यमानैः (वनस्पतिः) किरणानां पालकः (हिरण्यपर्णः) हिरण्यानि तेजांसि पर्णानि यस्य सः (मधुशाखः) मधुराः शाखा यस्य (सुपिप्पलः) सुन्दरफलः (देवम्) दिव्यगुणम् (इन्द्रम्) दारिद्र्यविदारकम् (अवर्धयत्) वर्धयति (दिवम्) प्रकाशम् (अग्रेण) पुरस्सरेण (अस्पृक्षत्) स्पृहेत् (आ) समन्तात् (अन्तरिक्षम्) अवकाशम् (पृथिवीम्) भूमिम् (अदृंहीत्) धरेत् (वसुवने) वसुप्रदाय जीवाय (वसुधेयस्य) जगतः (वेतु) (यज) ॥२० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा देवैः सह वर्त्तमानो हिरण्यपर्णो मधुशाखः सुपिप्पलो देवो वनस्पतिर्देवमिन्द्रमवर्द्धयदग्रेण दिवमस्पृक्षदन्तरिक्षं तत्स्थांल्लोकान् पृथिवीञ्चादृंहीद् वसुवने वसुधेयस्य वेतु तथा यज ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वनस्पतयो मेघं वर्द्धयन्ति सूर्यश्च लोकान् धरति तथा विद्वांसो विद्यायाचिनं विद्यार्थिनं वर्धयन्ति ॥२० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशा वनस्पती जल वर खेचून घेतात व मेघ वर्धित करण्यास कारणीभूत होतात व सूर्य इतर ग्रहगोलांना धारण करतो तसे विद्वान लोक जिज्ञासू विद्यार्थ्यांच्या ज्ञानात भर टाकतात.