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दे॒वऽइन्द्रो॒ नरा॒शꣳस॑स्त्रिवरू॒थस्त्रि॑बन्धु॒रो दे॒वमिन्द्र॑मवर्धयत्। श॒तेन॑ शितिपृ॒ष्ठाना॒माहि॑तः स॒हस्रे॑ण॒ प्र व॑र्त्तते मि॒त्रावरु॒णेद॑स्य हो॒त्रमर्ह॑तो॒ बृह॒स्पति॑ स्तो॒त्रम॒श्विनाऽध्व॑र्यवं वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वेतु॒ यज॑ ॥१९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वः। इन्द्रः॑। नरा॒शꣳसः॑। त्रि॒व॒रू॒थ इति॑ त्रिऽवरू॒थः। त्रि॒व॒न्धु॒र इति॑ त्रिऽबन्धु॒रः। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒य॒त्। श॒तेन॑। शि॒ति॒पृ॒ष्ठाना॒मिति॑ शितिऽपृ॒ष्ठाना॑म्। आहि॑त॒ इत्याहि॑तः। स॒हस्रे॑ण। प्र। व॒र्त्त॒ते॒। मि॒त्रावरु॑णा। इत्। अ॒स्य॒। हो॒त्रम्। अर्ह॑तः। बृह॒स्पतिः॑। स्तो॒त्रम्। अ॒श्विना॑। अध्व॑र्यवम्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वे॒तु॒। यज॑ ॥१९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:19


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (त्रिबन्धुरः) ऋषि आदि रूप तीन बन्धनोंवाला (त्रिवरूथः) तीन सुखदायक घरों का स्वामी (नराशंसः) मनुष्यों की स्तुति करने और (इन्द्रः) ऐश्वर्य को चाहनेवाला (देवः) जीव (शतेन) सैकड़ों प्रकार के कर्म से (देवम्) प्रकाशमान (इन्द्रम्) विद्युद् रूप अग्नि को (अवर्धयत्) बढ़ावे। जो (शितिपृष्ठानाम्) जिन की पीठ पर बैठने से शीघ्र गमन होते हैं, उन पशुओं के बीच (आहितः) अच्छे प्रकार स्थिर हुआ (सहस्रेण) असङ्ख्य प्रकार के पुरुषार्थ से (प्र, वर्त्तते) प्रवृत्त होता है। (मित्रावरुणा) प्राण और उदान (अस्य) (इत्) ही (होत्रम्) भोजन की (अर्हतः) योग्यता रखनेवाले जीव के सम्बन्धी (वसुधेयस्य) संसार के (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े पदार्थों का रक्षक बिजुली रूप अग्नि (स्तोत्रम्) स्तुति के साधन (अश्विना) सूर्य-चन्द्रमा और (अध्वर्यवम्) अपने को यज्ञ की इच्छा करनेवाले जन को (वसुवने) धन माँगनेवाले के लिए (वेतु) कमनीय करे, वैसे (यज) सङ्ग कीजिए ॥१९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विविध प्रकार के सुख करनेवाले तीनों अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान काल का प्रबन्ध जिन में हो सके, ऐसे घरों को बना, उन में असंख्य सुख पा और पथ्य भोजन करके माँगनेवाले के लिए यथायोग्य पदार्थ देते हैं, वे कीर्त्ति को प्राप्त होते हैं ॥१९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(देवः) जीवः (इन्द्रः) ऐश्वर्यमिच्छुकः (नराशंसः) यो नराञ्छंसति स्तौति सः (त्रिवरूथः) त्रीणि त्रिविधसुखप्रदानि वरूथानि गृहाणि यस्य सः (त्रिबन्धुरः) त्रयो बन्धुरा बन्धनानि यस्य सः (देवम्) देदीप्यमानम् (इन्द्रम्) विद्युतम् (अवर्द्धयत्) वर्धयेत् (शतेन) एतत्सङ्ख्याकेन कर्मणा (शितिपृष्ठानाम्) शितयस्तीक्ष्णा गतयः पृष्ठे येषान्तेषाम् (आहितः) समन्ताद् धृतः (सहस्रेण) असङ्ख्येन पुरुषार्थेन (प्र, वर्त्तते) (मित्रावरुणा) प्राणोदानौ (इत्) एव (अस्य) जीवस्य (होत्रम्) अदनम् (अर्हतः) (बृहस्पतिः) बृहतां पालको विद्युद्रूपोऽग्निः (स्तोत्रम्) स्तुवन्ति येन तत् (अश्विना) सूर्याचन्द्रमसौ (अध्वर्यवम्) य आत्मनोऽध्वरमिच्छति तम्। अत्र वाच्छन्दसीत्यस्यपि गुणावादेशौ (वसुवने) यो वसूनि वनुते याचते तस्मै (वसुधेयस्य) संसारस्य (वेतु) (यज) ॥१९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा त्रिबन्धुरस्त्रिवरूथो नराशंसो देव इन्द्रः शतेनेन्द्रं देवमवर्धयद्, यः शितिपृष्ठानां मध्य आहितः सहस्रेण प्रवर्त्तते, मित्रावरुणास्येद्धोत्रमर्हतो वसुधेयस्य बृहस्पतिः स्तोत्रमश्विनाऽध्वर्यवं वसुवने वेतु तथा यज ॥१९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्यास्त्रिविधसुखकराणि त्रैकाल्यप्रबन्धानि गृहाणि रचयित्वाऽसङ्ख्यं सुखमवाप्य पथ्यं भोजनं कृत्वा याचमानाय यथायोग्यं वस्तु ददति ते कीर्तिं लभन्ते ॥१९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे भूत, भविष्य, वर्तमान काळात विविध प्रकारचे सुख देणारी घरे तयार करून त्यात राहतात त्यांना अमाप सुख प्राप्त होते व पथ्याच्या भोजनाची कामना करणाऱ्यांना योग्य पदार्थ (भोजन) देतात त्यांना कीर्ती प्राप्त होते.