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अ॒ना॒धृ॒ष्यो जा॒तवे॑दा॒ऽ अनि॑ष्टृतो वि॒राड॑ग्ने क्षत्र॒भृद् दी॑दिही॒ह। विश्वा॒ऽ आशाः॑ प्रमु॒ञ्चन् मानु॑षीर्भि॒यः शि॒वेभि॑र॒द्य परि॑ पाहि नो वृ॒धे ॥७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ना॒धृ॒ष्यः। जा॒तवे॑दा॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। अनि॑ष्टृतः। अनि॑स्तृत॒ इत्यनि॑ऽस्तृतः। वि॒राडिति॑ वि॒ऽराट्। अग्ने॑। क्ष॒त्र॒भृदिति॑ क्षत्र॒ऽभृत्। दी॒दिहि॒। इ॒ह ॥ विश्वाः॑। आशाः॑। प्र॒मु॒ञ्चन्निति॑ प्रऽमु॒ञ्चन्। मानु॑षीः। भि॒यः। शि॒वेभिः॑। अ॒द्य। परि॑। पा॒हि॒। नः॒। वृ॒धे ॥७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:27» मन्त्र:7


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अच्छे प्रकार राजनीति का संग्रह करनेवाले राजन् ! जो आप (अद्य) इस समय (इह) इस राजा के व्यवहार में (मानुषीः) मनुष्यसम्बन्धी (भियः) रोगशोकादि भयों को नष्ट कीजिये (शिवेभिः) कल्याणकारी सभ्य सज्जनों के साथ (अनिष्टृतः) दुःख से पृथक् हुए (अनाधृष्यः) अन्यों से नहीं धमकाने योग्य (जातवेदाः) विद्या को प्राप्त (विराट्) विशेषकर प्रकाशमान (क्षत्रभृत्) राज्य के पोषक हैं, सो आप (नः) हमारी (दीदिहि) कामना कीजिये (विश्वाः) सब (आशाः) दिशाओं को (प्रमुञ्चन्) अच्छे प्रकार मुक्त करते हुए हमारी (वृधे) वृद्धि के लिए (परि, पाहि) सब ओर से रक्षा कीजिये ॥७ ॥
भावार्थभाषाः - जो राजा वा राजपुरुष प्रजाओं को सन्तुष्ट कर मङ्गलरूप आचरण करने और विद्याओं से युक्त न्याय में प्रसन्न रहते हुए प्रजाओं की रक्षा करें, वे सब दिशाओं में प्रवृत्त कीर्त्तिवाले होवें ॥७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अनाधृष्यः) अन्यैर्धर्षितुमयोग्यः (जातवेदाः) जातविद्यः (अनिष्टृतः) दुःखात् पृथग्भूतः (विराट्) विशेषेण राजमानः (अग्ने) सुसंगृहीतराजनीते (क्षत्रभृत्) यः क्षत्रं राज्यं बिभर्ति सः (दीदिहि) कामय (इह) अस्मिन् राज्यव्यवहारे (विश्वाः) सकलाः (आशाः) दिशः (प्रमुञ्चन्) प्रकर्षेण मुक्ताः कुर्वन् (मानुषीः) मनुष्यसम्बन्धिनीः (भियः) रोगदोषादिकाः (शिवेभिः) कल्याणकारिभिः सभ्यैः (अद्य) इदानीम् (परि) सर्वतः (पाहि) रक्ष (नः) अस्मान् (वृधे) वर्धनाय ॥७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! योऽद्येह मानुषीर्भियो नाशय, शिवेभिश्च सहानिष्टृतोऽनाधृष्यो जातवेदा विराट् क्षत्रभृदस्ति, स त्वं नो दीदिहि, विश्वा आशाः प्रमुञ्चँस्त्वं नो वृधे परि पाहि ॥७ ॥
भावार्थभाषाः - ये राजराजपुरुषाः प्रजाः सन्तोष्य मङ्गलाचरणाः सर्वविद्यान्यायप्रियाः सन्तः प्रजाः पालयेयुस्ते सर्वदिक्प्रवृत्तकीर्त्तयः स्युः ॥७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे राजे किंवा राजपुरुष प्रजेला संतुष्ट करून चांगले आचरण करतात व विद्येने युक्त होऊन न्यायाने आणि प्रसन्नतेने प्रजेचे रक्षण करतात त्यांची कीर्ती दिगदिगंतरी पसरते.