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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (वायुः) पवन (नियुद्भिः) निश्चित (शिवाभिः) मङ्गलकारक क्रियाओं से (यज्ञम्) यज्ञ को (गन्) प्राप्त होता है, वैसे (शिवः) मङ्गलस्वरूप (अग्रेगाः) अग्रगामी (यज्ञप्रीः) यज्ञ को पूर्ण करने हारे हुए आप (मनसा) मन की वृत्ति के (साकम्) साथ यज्ञ को प्राप्त हूजिये ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। इस मन्त्र में (आ, याहि) इस पद की अनुवृत्ति पूर्व मन्त्र से आती है। जैसे वायु अनेक पदार्थों के साथ जाता-आता है, वैसे विद्वान् लोग धर्मयुक्त कर्मों को विज्ञान से प्राप्त होवें ॥३१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ विद्वद्भिः किं कार्यमित्याह ॥
अन्वय:
(वायुः) पवनः (अग्रेगाः) योऽग्रे गच्छति सः (यज्ञप्रीः) यो यज्ञं प्राति पूरयति सः (साकम्) सह (गन्) गच्छति (मनसा) (यज्ञम्) (शिवः) मङ्गलमयः (नियुद्भिः) निश्चिताभिः क्रियाभिः (शिवाभिः) मङ्गलकारिणीभिः ॥३१ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा वायुर्नियुद्भिः शिवाभिर्यज्ञं गन् तथा शिवोऽग्रेगा यज्ञप्रीः संस्त्वं मनसा साकं यज्ञमायाहि ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। अत्रायाहीति पदं पूर्वमन्त्रादनुवर्त्तते। यथा वायुरनेकैः पदार्थैस्सह गच्छत्यागच्छति तथा विद्वांसो धर्म्याणि कर्माणि विज्ञानेन प्राप्नुवन्तु ॥३१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. या मंत्रात (आ याहि) या पदाची अनुवृत्ती पूर्वीच्या मंत्रातून झालेली आहे. जसा वायूचा अनेक पदार्थांबरोबर संयोग व वियोग होतो तसे विद्वान लोकांनी विज्ञानाच्या साह्याने धर्मयुक्त कर्म करावे.