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त्वाम॑ग्ने वृणते ब्राह्म॒णाऽ इ॒मे शि॒वोऽ अ॑ग्ने सं॒वर॑णे भवा नः। स॒प॒त्न॒हा नो॑ अभिमाति॒जिच्च॒ स्वे गये॑ जागृ॒ह्यप्र॑युच्छन् ॥३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वाम्। अ॒ग्ने॒। वृ॒ण॒ते॒। ब्रा॒ह्म॒णाः। इ॒मे। शि॒वः। अ॒ग्ने॒। सं॒वर॑ण॒ इति॑ सं॒ऽवर॑णे। भ॒व॒। नः॒ ॥ स॒प॒त्न॒हेति॑ सपत्न॒ऽहा। नः॒। अ॒भि॒मा॒ति॒जिदित्य॑भिमाति॒ऽजित्। च॒। स्वे। गये॑। जा॒गृहि॒। अप्र॑युच्छ॒न्नित्यप्र॑ऽयुच्छन् ॥३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:27» मन्त्र:3


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

जिज्ञासु लोगों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) तेजस्वी विद्वन् ! अग्नि के समान वर्तमान जो (इमे) ये (ब्राह्मणाः) ब्रह्मवेत्ता जन (त्वाम्) आप को (वृणते) स्वीकार करते हैं, उन के प्रति आप (संवरणे) सम्यक् स्वीकार करने में (शिवः) मङ्गलकारी (भव) हूजिये (नः) हमारे (सपत्नहा) शत्रुओं के दोषों के हननकर्त्ता हूजिये। हे (अग्ने) अग्निवत् प्रकाशमान ! (अप्रयुच्छन्) प्रमाद नहीं करते हुए (च) और (अभिमातिजित्) अभिमान को जीतनेवाले आप (स्वे) अपने (गये) घर में (जागृहि) जागो अर्थात् गृहकार्य करने में निद्रा आलस्यादि को छोड़ो (नः) हम को शीघ्र चेतन करो ॥३।
भावार्थभाषाः - जैसे विद्वान् लोग ब्रह्म को स्वीकार करके आनन्द मङ्गल को प्राप्त होते और दोषों को निर्मूल नष्ट कर देते हैं, वैसे जिज्ञासु लोग ब्रह्मवेत्ता विद्वानों को प्राप्त हो के आनन्द मङ्गल का आचरण करते हुए बुरे स्वभावों के मूल को नष्ट करें और आलस्य को छोड़ के विद्या की उन्नति किया करें ॥३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

जिज्ञासुभिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(त्वाम्) (अग्ने) विद्वन् (वृणते) स्वीकुर्वन्ति (ब्राह्मणाः) ब्रह्मविदः (इमे) (शिवः) मङ्गलकारी (अग्ने) पावकवत् प्रकाशमान (संवरणे) सम्यक् स्वीकरणे (भव) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अ०६.३.१३५] इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (सपत्नहा) शत्रुदोषहन्ता (नः) अस्मान् (अभिमातिजित्) अभिमानजित् (च) (स्वे) स्वकीये (गये) गृहे (जागृहि) (अप्रयुच्छन्) प्रमादमकुर्वन् ॥३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - अग्ने पावकवद्वर्त्तमान य इमे ब्राह्मणास्त्वां वृणते तान् प्रति त्वं संवरणे शिवो भव नोऽस्माकं सपत्नहा भव। हे अग्ने ! अप्रयुच्छन्नभिमातिजिच्च त्वं स्वे गये जागृहि, नोऽस्मांश्च जागृतान् कुरु ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - यथा विद्वांसो ब्रह्म स्वीकृत्य मङ्गलमाप्नुवन्ति दोषान् घ्नन्ति तथा जिज्ञासवो ब्रह्मविदः प्राप्य मङ्गलाचरणाः सन्तः कुशीलतां घ्नन्त्वालस्यं विहाय विद्यामुन्नयन्तु च ॥३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे विद्वान लोक मुळापासून दोष नष्ट करतात व ब्रह्माची उपासना करून आनंदी होतात आणि कल्याण करून घेतात. तसे जिज्ञासू लोकांनी ब्रह्मवेत्ते असलेल्या विद्वानांच्या संगतीने आनंदी व्हावे व कल्याणकारी आचरण करावे. वाईट स्वभाव मुळापासून दूर करावा आणि आळस सोडून विद्येचा प्रसार करावा.