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इन्द्रा या॑हि वृत्रह॒न् पिबा॒ सोम॑ꣳ शतक्रतो। गोम॑द्भिर्ग्राव॑भिः सु॒तम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा गोम॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा गोम॑ते ॥५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। वृ॒त्र॒ह॒न्निति॑ वृत्रऽहन्। पिब॑। सोम॑म्। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। गोम॑द्भि॒रिति॒ गोम॑त्ऽभिः। ग्राव॑भि॒रिति॒ ग्राव॑ऽभिः। सु॒तम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। गोम॑त॒ इति॒ गोऽम॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। गोम॑त॒ इति॒ गोऽम॑ते ॥५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:26» मन्त्र:5


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शतक्रतो) बहुत बुद्धि और कर्मयुक्त (वृत्रहन्) मेघहन्ता सूर्य के समान शत्रुओं के हननेवाले (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त विद्वान् आप (गोमद्भिः) जिन में बहुत चकमती हुई किरणें विद्यमान उन पदार्थों और (ग्रावभिः) गर्जनाओं से गर्जते हुए मेघों के साथ (आ, याहि) आइये और (सुतम्) उत्पन्न हुए (सोमम्) ऐश्वर्य करने हारे रस को (पिब) पीओ जिस कारण आप (गोमते) बहुत दूध देती हुई गौओं से युक्त (इन्द्राय) ऐश्वर्य के लिए (उपयामगृहीतः) अच्छे नियमों से आत्मा को ग्रहण किये हुए (असि) हैं, उन (त्वा) आप को तथा जिन (ते) आप का (एषः) यह (गोमते) प्रशंसित भूमि के राज्य से युक्त (इन्द्राय) ऐश्वर्य चाहनेवाले के लिए (योनिः) घर है, उन (त्वा) आप का हम लोग सत्कार करें ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्य ! जैसे मेघहन्ता सूर्य सब जगत् से रस पी के और वर्षा के सब जगत् को प्रसन्न करता है वैसे ही तू बड़ी-बड़ी ओषधियों के रस को पी तथा ऐश्वर्य की उन्नति के लिये अच्छे प्रकार यत्न किया कर ॥५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं क्रियेत इत्याह ॥

अन्वय:

(इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (आ) समन्तात् (याहि) गच्छ (वृत्रहन्) यो वृत्रं मेघं हन्ति स सूर्यस्तद्वत् (पिब) अत्र ‘द्व्यचोऽतस्तिङः’ [अ०६.३.१३५] इति दीर्घः। (सोमम्) ऐश्वर्यकारकं रसम् (शतक्रतो) बहुप्रज्ञाकर्मयुक्त (गोमद्भिः) बहवो गावः किरणा विद्यन्ते येषु तैः (ग्रावभिः) गर्जनायुक्तैर्मेघैः (सुतम्) निष्पादितम् (उपयामगृहीतः) सुनियमैर्निगृहीतात्मा (असि) (इन्द्राय) ऐश्वर्याय (त्वा) त्वाम् (गोमते) बहुधेन्वादियुक्ताय (एषः) (ते) तव (योनिः) गृहम् (इन्द्राय) ऐश्वर्यमिच्छुकाय (त्वा) त्वाम् (गोमते) प्रशस्तभूमिराज्ययुक्ताय ॥५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शतकतो वृत्रहन्निन्द्र त्वं गोमद्भिर्ग्रावभिः सहायाहि सुतं सोमं पिब। यतस्त्वं गोमत इन्द्रायोपयामगृहीतोऽसि तं त्वा यस्यैष ते गोमत इन्द्राय योनिरस्ति तं त्वा च वयं सत्कुर्याम ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथा मेघहन्ता सूर्यः सर्वस्य जगतो रसं पीत्वा वर्षयित्वा सर्वं जगत् प्रीणाति तथैव त्वं महौषधिरसान् पिब ऐश्वर्योन्नतये प्रयतस्व च ॥५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसा, जसे मेघांचे हनन करणारा सूर्य जगाचा रस शोषून वृष्टी करतो व सर्व जगाला प्रसन्न करतो, तसेच तू ही उत्तम औषधांचा रस सेवन करून ऐश्वर्य वाढविण्याचा प्रयत्न कर.