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इन्द्र॒ गोम॑न्नि॒हा या॑हि॒ पिबा॒ सोम॑ꣳ शतक्रतो। वि॒द्यद्भि॒र्ग्राव॑भिः सु॒तम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ गोम॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ गोम॑ते ॥४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑। गोम॒न्निति॒ गोऽम॑न्। इ॒ह। आ। या॒हि॒। पिब॑। सोम॑म्। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। वि॒द्यद्भि॒रिति॒ वि॒द्यत्ऽभिः॑। ग्राव॑भि॒रिति॒ ग्राव॑ऽभिः। सु॒तम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। गोम॑त॒ इति॒ गोऽम॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। गोम॑त इति॒ गोऽम॑ते ॥४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:26» मन्त्र:4


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शतक्रतो) जिस की सैकड़ों प्रकार की बुद्धि और (गोमन्) प्रशंसित वाणी है सो ऐसे हे (इन्द्र) विद्वन् पुरुष ! आप (आ, याहि) आइये (इह) इस संसार में (विद्यद्भिः) विद्यमान (ग्रावभिः) मेघों से (सुतम्) उत्पन्न हुए (सोमम्) सोमवल्ली आदि ओषधियों के रस को (पिब) पियो, जिससे आप (उपयामगृहीतः) यम-नियमों से इन्द्रियों को ग्रहण किये अर्थात् इन्द्रियों को जीते हुए (असि) हो, इसलिए (गोमते) प्रशस्त पृथिवी के राज्य से युक्त पुरुष के लिये और (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्य के लिये (त्वा) आप को और जिन (ते) आप का (एषः) यह (योनिः) निमित्त है उस (गोमते) प्रशंसित वाणी और (इन्द्राय) प्रशंसित ऐश्वर्य से युक्त पुरुष के लिये (त्वा) आप का हम लोग सत्कार करते हैं ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - जो वैद्यकशास्त्र विद्या से सिद्ध और मेघों से उत्पन्न हुई औषधियों का सेवन और योगाभ्यास करते हैं, वे सुख तथा ऐश्वर्य्ययुक्त होते हैं ॥४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

(इन्द्र) विद्वन् मनुष्य ! (गोमन्) प्रशस्ता गौर्वाणी विद्यते यस्य तत्संबुद्धौ (इह) अस्मिन् संसारे (आ) (याहि) प्राप्नुहि (पिब) अत्र ‘द्व्यचोऽतस्तिङः’ [अ०६.३.१३५] इति दीर्घः (सोमम्) रसम् (शतक्रतो) शतमसंख्यः क्रतुः प्रज्ञा यस्य तत्सम्बुद्धौ (विद्यद्भिः) विद्यमानैः। अत्र व्यत्ययेन परमैपदम् (ग्रावभिः) मेघैः (सुतम्) निष्पन्नम् (उपयामगृहीतः) उपयामैर्गृहीतानि जितानि इन्द्रियाणि येन सः (असि) (इन्द्राय) ऐश्वर्याय (त्वा) त्वाम् (गोमते) प्रशस्तपृथिवीराज्ययुक्ताय (एषः) (ते) (योनिः) निमित्तम् (इन्द्राय) प्रशस्तैश्वर्यवते (त्वा) त्वाम् (गोमते) प्रशस्तवाग्वते ॥४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शतक्रतो गोमन्निन्द्र त्वमिहा याहि विद्यद्भिर्ग्रावभिः सुतं सोमं पिब यतस्त्वमुपयामगृहीतोऽसि तस्माद् गोमत इन्द्राय त्वा यस्यैष ते योनिरस्ति तस्मै गोमत इन्द्राय त्वां च वयं सत्कुर्मः ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - ये वैद्यकशास्त्रविद्यासिद्धानि मेघेनोत्पन्नान्यौषधानि सेवन्ते योगं चाभ्यस्यन्ति ते सुखैश्वर्ययुक्ता जायन्ते ॥४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे वैद्यकशास्त्रानुसार व पावसाच्या पाण्यापासून उत्पन्न झालेल्या वृक्षौषधींचे सेवन करून योगाभ्यास करतात ते सुखी व ऐश्वर्ययुक्त बनतात.