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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) ऐश्वर्ययुक्त विद्वन् ! आप जो (इन्द्राय) संपत्ति की (पातवे) रक्षा करने के लिए (सुतः) निकाला हुआ उत्तम रस है, उस की (स्वादिष्ठया) अति स्वादयुक्त (मदिष्ठया) अति आनन्द देनेवाली (धारया) धारण करने हारी क्रिया से (पवस्व) पवित्र हूजिये ॥२५ ॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् मनुष्य सब रोगों के नाशक आनन्द देनेवाले ओषधियों के रस को पी के अपने शरीर और आत्मा को पवित्र करते हैं, वे धनाढ्य होते हैं ॥२५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(स्वादिष्ठया) अतिशयेन स्वादुयुक्तया (मदिष्ठया) अतिशयेनानन्दप्रदया (पवस्व) पवित्रो भव (सोम) ऐश्वर्ययुक्त (धारया) धारणकर्त्र्या (इन्द्राय) ऐश्वर्याय (पातवे) पातुं रक्षितुम् (सुतः) निष्पादितः ॥२५ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे सोम विद्वँस्त्वं य इन्द्राय पातवे सुतोऽस्ति तस्य स्वादिष्ठया मदिष्ठया धारया पवस्व ॥२५ ॥
भावार्थभाषाः - ये विद्वांसो मनुष्याः सर्वरोगप्रणाशकमानन्दप्रदमोषधिरसं पीत्वा शरीरात्मानौ पवित्रयन्ति ते धनाढ्या जायन्ते ॥२५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी विद्वान माणसे सर्व रोगांचा नाश करून आनंदी राहतात व औषधांचा रस पिऊन आपले शरीर व आत्मा यांना पवित्र करतात ते धनाढ्य बनतात.