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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर विद्वान् मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (द्रविणोदाः) धन वा यश का देनेवाला जन (ऋतुभिः) वसन्तादि ऋतुओं के साथ (नेष्ट्रात्) विनय से रस को (पिपीषति) पिया चाहता है, वैसे तुम लोग रस को (इष्यत) प्राप्त होओ (जुहोत) ग्रहण वा हवन करो (च) और (प्र, तिष्ठत) प्रतिष्ठा को प्राप्त होओ ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् ! जैसे उत्तम वैद्य सुन्दर पथ्य भोजन और उत्तम विद्या से आप रोगरहित हुए दूसरों को रोगों से पृथक् करके प्रशंसा को प्राप्त होते हैं, वैसे ही तुम लोगों को भी आचरण करना अवश्य चाहिये ॥२२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनर्विद्वद्भिर्मनुष्यैः किं कार्यमित्याह ॥
अन्वय:
(द्रविणोदाः) यो द्रविणो धनं यशो वा ददाति सः (पिपीषति) पातुमिच्छति (जुहोत) (प्र, च) (तिष्ठत) प्रतिष्ठां लभध्वम् (नेष्ट्रात्) विनयात् (ऋतुभिः) वसन्तादिभिः सह (इष्यत) प्राप्नुत ॥२२ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या यथा द्रविणोदा ऋतुभिः सह नेष्ट्राद् रसं पिपीषति तथा यूयं रसमिष्यत जुहोत प्रतिष्ठत च ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो मनुष्याः ! यथा सद्वैद्याः पथ्येनोत्तमविद्यया स्वयमरोगाः सन्तोऽन्यान् रोगात् पृथक्कृत्य प्रशंसां लभन्ते तथैव युष्माभिरप्याचरणीयम् ॥२२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! जसा उत्तम वैद्य पथ्याने भोजन करून, उत्तम विद्येने स्वतः रोगरहित बनून, इतरांना रोगांपासून पृथक करून प्रशंसेस पात्र ठरतो तसेच तुम्हीही वागा.